पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४५५

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तहां जो रांम नांम क्यों लागै,
        तौ जुरां मरण छूटेै भ्रम भागै । टैक॥
   अगम निगम दध्दढ़ रचि ले अबास,तहुवां जोति करै परकास ।
   चमकै बिजुरी तार अनत, तहां प्रभू बैठे कवलाकंत॥
   अखड मंडित मंडित मड, त्रि स्नांन करै त्रीखड ।
   अगम अगोचर अभिअतरा, ताकौ पार न पावै धरणींघरा ॥
   अरध उऱघ त्रिचि लाइ ले अकाम, तहुवां जोति करै परकास ।
   टारचौ टरै न आवै जाइ, सहज सू नि मैं रह्यौ समाइ ॥
   अबरन बरन स्याम नहीं पीत, हाहू जाइ न गावै गीत ।
   अनहद सबद उठे झणकार, तहां प्रभू बेैठे समरथ सार ॥
   कदली पुहुप दीप परकास, रिदा पंकज मै लिया निवास ।
   द्वादस दल अभिअंतरि म्यत, तहां प्रभू पाइसि करिलै च्यत ॥
   अमिलन मलिन घांम नहीं छांहां, दिवस न राति नहीं है तहाँ ।
   तहां न ऊगे सूर न चद्, आदि निरजन करै अनंद ॥
   ब्र्हाम्ंडे सो प्यंडे जांनि, मांनसरोवर करि असनांन ।
   सोहं हसा ताकौ जाप, ताहि न लिपै पुन्य न पाप ॥
   काया मांहै जांने सोई जो बोलै सो आपै होई ।
   जोति माँहि जे मन थिर करै, कहै कबीर सो प्रांणीं तिरै ॥
      शब्दार्थ-गढ़=कपाल, शून्य, व्रहारन्ध । बिजुरी-बिज़ली ।    कुण्डलिनी त्रिखण्ड=तीनो लोक, तीनो गुण । त्रिअस्वान=तीनो  कालौ मे (सदैव) स्नान करते हैं । घरणधिरा=शेषनाग 1 रिदा=ह्रदय । 
      संदर्भ- कबीरदास प्रतीकों के माध्यम से परम तत्त्व की अनुभूति दशा का व्यंजना करते हैं।
      भावार्थ-सहस्त्रार कमल मे विराजमान राम मे यदि ध्यान लगजाता है, तौ जरा-मरण का वन्धन छूट जाता है और समस्त अज्ञान ज़न्य भ्रम समाप्त हो जाता है । व्रह्यरन्ध रूपी किले मे एक आवाम बना हुआ है । वहाँ तक चेतना का पहुँचना

अत्यत कठिन है और वहाँ पहुँचने पर समस्त गति समाप्त हो जाती है । (अर्थाथ् वहां पहुँच जाने पर पुनरावर्तन नही होता है) । वही पर व्रह्य-ज्योति का प्रकाश होता है। वहां पर कुण्डलिनि रूपी बिजली चमकती है और अनन्त तारागण भी खिले हुए है।यहीं पर भगावान कमलकात विराजमान है।वही पर प्रकाश का अखण्ड मण्डलो से मडित परम ब्रह्मा की ज्योति के दर्शन होते है।इस ज्योति मे तीनो कालो मे(सदैव) इस्के त्रिगुण रूप निम्ज्जित रह्ते है। यह अग्यम और अगौचर प्रकाश आभन्तर तत्व है(गुहानिहित)।शेपनाग भी इसका पार नही पा सके है।पिण्ड और ग्र्हाणाट का माध्य मे व्यप्त करो।