पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४५७

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७७२] [कबीर

    (३)'हउ'-गीत-वह शब्द लोक-वाणी के परे है। डां माताप्रसाद गुप्त ने 'हंउ' का अर्थ 'हाहू-एक गधवं विशेष लिखा है और इस पंक्ति का अर्थ इस प्रकार किया है-"जहाँ पर न हाहू(गधर्व-विशेष) जाता है और न वह गीत गाता है।" 
   (४)तहाँ न-ससार की इन सब वस्तुअओ,पॣमेयॊं और बच्चो से परे का वह तत्व है।"
   (५)जरा मरण छूटै तथा तहां न ऊगै सूर-इत्यादी। समभाव के लिए देख-
             न तटूभासयते सूर्ये न शशांको न पावकः ।
             यदगत्वा न निवतंन्ते तद्वाम परसं मम ।
                                  (श्रीमदभगवतगीता-१४/६)
   (६)नाथपथी प्रतीको का प्रयोग है ।
                    (३२६)
  एक अचंभा ऐसा भया,
             करणी थै कारण मिटि गया ॥टेक॥
    करणी किया करम का नास,पावक माँहि पुहुप प्रकास ॥
    पुहुप माँही पावक प्रजरै ,  पाप पुन्य दोऊ भ्रम टरै ॥
    प्रगटी बास वासना धोइ,कुल पृगटच़ौ कुल घाल्यौ खोइ ॥
    उपजी च्यत च्यत मिटि गई,भौ भ्रम भागा ऐसी भाई ॥
    उलटी गंग मेर कू चली,धरती उलटि अकासहि मिली ॥
    दास कबीर तत ऐसा कहै, ससिहर उमटि राह कौ गहै ॥
   शब्दार्थ-करणी=कार्य,साधना । कारण=(१)अज्ञान्, (२)जन्म-मरण का मूलभूत कारण ।  पावक=(१)अग्नि, को अग्नि,(२)मूलाधार चऋ की चण्डाग्मि । पुष्प=(१)अनासक्ति का आनद (२)सहस्रार कमल। पावक=(१) ज्ञानतीत ,(२)निरजन रूपी परमतत्व । वास-वासना=(१)वासना-रूप दुगंध,(२)कमल से निकलने वाली सुगध । कुल प्रगतट्यौ=सधको के कुल का ग्यन प्रकट हो गया है । कुछ घालौ=अज्ञान के कुल का नाश हो गया है । च्यत=ग्यन । च्यत=सासारिक चिन्ताएँ । धरती=(१)जड माया,(२)मूलाधार चऋ । आकाश=(१)ब्रह्म्,(२)शून्य चऋ,ब्रह्म रन्ध्र । ससिहर=चन्द्रमा(१)चैतन्य सहस्रार से निस्सृत अमृत । राहु=(१)अज्ञान ,(२)विषयो का विष । 
     सन्दर्भ-इस पद मे कबीर आत्म-स्वरूप प्राप्ति की साधना क वर्ण्न करते है। इस साधना के दो पक्ष है-(१)ग्यन एवं भक्ति तथा(२)काया योग । इस पद का अर्थ दोनो ही पक्षो मे पूर्णतः घटित हो जाता है । याथा-
     ग्यन एवं भक्ति परक अर्थ-एक ऐसे आशचर्य की बात होगई कि कार्य के द्वारा कारण समाप्त हो गया अथित् साधना के द्वारा अज्ञान् क नाश होगया। साधना ने कतंत्य के अभिमान एव कमाँ के प्रती फलासक्ति को समाप्त कर दिया।