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तन सराय मन पाहरू मनसा उतरी आय।
कोउ काहू का है नही,देखा ठोंकि बजाय॥

इन साखियो मे अभिव्यक्ति सत्य सबको प्रभावित करता है।कबीर को 'हाड जरै ज्यो लाकडो,केस जरै ज्यो घास,' 'पानी केरा बुलबुला जस मानुष को जाति। 'तथा' यह तन काचा कुंभ है लिये फिरै था साथ। 'टपका लागा फूटिया, कछु नहिं आया हाथ 'आदि साखियो मे अभिव्यंजना शक्ति विशेष रूप से प्रभावशाली है कि उनमे सत्य की अभिव्यक्त हुई है। उपनिषदो को दुरूह उक्तियो को कबीर ने बडी सरलतम भाषा मे व्यक्त किया है।--

पानी ही थे हिम भया हिम हवे गया विलाय ,
जो कुछ था सोई भया अब कुछ कहा न जाय॥

तथा

 हेरत हेरत हे सखी रहा कबीर हेराय ।
बूंद समान समुद्र में सोकत हेरा जाय॥

मे तत्व और रहस्य को अभिव्यक्ति हुई है। निम्नलिखित दो साखियो मे कबीर का अभिव्यजना कौशल दर्शनीय है:--

 पिय का मारग सुगम है तेरा भजन अचेड़ा।
नाच न जानै बापुरी कहॅ आगना टेढ़ा॥

तथा

पिय का मारग कठिन है खाँडा हो जैसा ।
नाचत निकसी बापुरी फिर घूघॅट कैसा ॥

तथा किंचित शब्दो के हेर-फेर से साखियो के प्रतिपाद्य मे कितना अन्तर पड़ गया है।कबीर प्रमुख रूप से अनाचारो के विरूद्ध आवाज़ उठाने वाले दार्शनिक कवि थे। उनकी अभिव्यजना शैली की शक्तिमता"चेतावनो"प्रमुग मे दृष्टिगत होती है। दो एक उदाहरणों से कथन सपष्ट हो जाएगा--

 आछे दिन पाछे पाछे गए, गुरु से फिता न हेत।
अब पछताया क्या करे जब चिड़िया चुग गइ खेत॥

तथा

 मनुष्य ज्न्म दुर्लभ अहें होय न बारम्बार ।
तरबर से पत्ता झरे ,घहुरि न लागै डार ॥

सारांश यह कि कवि कबीर कि अभिव्यंजना भक्ति उनके, व्यक्तित्व के जनु-कूल तथा मनुष्य है।जिस प्रकार उसकी द़ृष्टि मे तीक्षगुना तथा तीव्रता की टमी