पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४६३

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७७८] [कबीर नांउ मेरे बंधव नांउ मेरे भाई,अत बिरियाँ नाँव सहाई॥ नांउ मेरे निरसधन ज्यु निधि पाई,कहै कबीर जैसै रंक मिठाई॥ शब्धार्थ-बारी=वाटिका। वधन=बान्धव। संदर्भ-कबीदास् प्रभु-नाम को महिमा का प्रतिपादन करते है। भावार्थ मेरे पास हरि क नाम रूपी धन है जिसे मै न गाँठ मे बाँधता हूँ और न बेचकर खाता है।