पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४६४

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ग्रन्थावली ] [ ७७६ च्यंतामणि क्यू पाइए ठोली, मन दे रांम लियौ निरमोली ।। ब्रह्मा खोजत जनम गॅवायौ, सोइ रांम घट भीतरि पायौ ।। कहै कबीर छूटी सब आसा, मिल्यौ राम उपज्यौ बिसवासा ।।। शब्दार्थ-भीनों= भीग गया है, युक्त हो गया है। मोरी=मोडूगा। ठोली-योही बिना परिश्रम के । निरमोली-अमूल्य । आसा=सासारिक आशाएं अथवा अन्य प्रकार की साधनाओ से मुक्ति प्राप्त होने की आशा। सदर्भ-कबीर प्रभु-भक्ति के प्रति अपनी दृढ निष्ठा व्यक्त करते हैं। भावार्थ-अब भगवान ने मुझको अपना बना लिया है और मेरा मन उनके प्रेम एव उनकी भक्ति के रस मे पूरी तरह निमग्न (भीग) गया है। प्रेम-भक्ति के मार्ग पर चलते हुए मेरा शरीर जल भी जाए, तब भी मैं इससे अपने अगो को नही मोडू गा--- इस मार्ग को नहीं छोडूंगा। यदि प्रभु की भक्ति मे मुझे अपने प्राण देने पडे, तब भी मैं भगवान के प्रति प्रेम को समाप्त नहीं करूंगा। हरि-रूपी चिन्तामणि ऐसे ही बिना परिश्रम के क्या कभी प्राप्त होती है ? मैंने अमूल्य राम-नाम को अपना मन देकर प्राप्त किया है। मैंने जिस भगवान को इधर-उधर विभिन्न साधनाओ मे खोजते हुए अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर दिया। उसी भगवान को मैंने अपने हृदय के भीतर प्राप्त कर लिया है । कबीरदास कहते है कि अब मेरी समस्त सासारिक आशाएँ समाप्त हो गई हैं। राम का साक्षात्कार हो जाने से अब मेरे मन मे यह विश्वास उत्पन्न हो गया है कि मेरा उद्धार हो जाएगा। अलकार-(1) विशेषोक्ति की व्यजना-जरै । तोरी । (11) रूपकातिशयोक्ति-च्यतामणि ।। (1) वक्रोक्ति-क्यू पाइए ठोली । विशेष---भक्ति के उदय की आनन्दावस्था का वर्णन है। ( ३३५ ) लोग कहैं गोबरधनधारी, ताको मोहिं अचभौ भारी ॥टेक॥ अष्ठ कुली परबत जाके पग की रैना, सातौं सायर अंजन ननां ।। ऐ उपमा हरि किती एक औपै, अनेक मेर नख ऊपरि रोपै ।। धरनि अकास अधर जिनि राखी, ताक्री मुगधा कहै न साखी ।। सिब बिरचि नारद जस गावै, कहैं कबीर वाको पार न पावै ।। शब्दार्थ-रैना=रेणु-धूलि । सायर=सागर । ओपै= शोभित । मेर= सुमेरु । रोपै= गाडना, जमाना । अधर=विना किसी आधार के । मुगधा मूर्ख । साखी = साक्ष्य, साक्षात्कार । सन्दर्भ-कबीर भगवान को वाणी के परे बताते हैं । भावार्थ-लोग भगवान को गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाला कह कर उसकी शक्ति का वर्णन करते हैं। उनकी इस बुद्धि पर मुझे बहुत आश्चर्य होता है।