पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४६५

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७८० ] [ कबीर सम्पूर्ण अष्ट कुल के पर्वत उस परमात्मा के पैर की धूल मात्र हैं और सातों समुद्र उसके नेत्रो के अजन मात्र हैं । उन भगवान ने अनेक सुमेरु पर्वत अपने नाखून के ऊपर टिका रखे हैं । ऐसे शक्तिशाली भगवान के लिए गोवर्धन धारी की उपमा कहाँ तक उपयुक्त हो सकती है ? जिसने पृथ्वी और आकाश को बिना किसी आधार के (निरावलब) टिका रखा है, उन भगवान के साक्षात्कार का वर्णन अज्ञानी मूर्ख कदापि नही कर सकते हैं, अर्थात् मूर्ख उनके स्वरूप की क्या साखी देंगे ? कवीरदास कहते है कि शिव, ब्रह्मा और नारद उस परमब्रह्म के यश का निरन्तर गान करते हैं। परन्तु उसकी शक्ति का पार वे भी नही पा सकते है । अलंकार--(1) परिकराकुर-गोवर्धन धारी । (ii) अतिशयोक्ति-अष्ट कुली' 'नैना। | (iii) वक्रोक्ति–किती एक ओपे । (iv) व्यतिरेक-अनेक मेर"••••••रोपै । (v) विभावना की व्यजना–धरनि"..."राखी । | (vi) सम्बन्धातिशयोक्ति-पार न पावै । विशेष--(1) असीम ब्रह्म को ससीम मानने की धारणा का प्रत्याख्यान किया गया है । इस प्रकार सगुण भक्ति का विरोध है ।। | (ii) असीम तत्व का ससीम एवं सगुण बिम्बो से प्रतिपादन है । | ( ३३६ ) राम निरंजन न्यारा रे, अंजन सकल पसारा रे ।।टेक।। अजन उतपति वो उकार, अंजन मांड्या सब बिस्तार ॥ अंजन ब्रह्मा सकर इद, अजन गोपी संगि गोव्यद ।। अंजन बॉणी, अंजन बेद, अजन कीया नानां भेद ॥ अंजन विद्या पाठ पुरान, अंजन फोकट कथहि गियान ॥ अजन पाती अंजन देव, अंजन की करे अजन सेव ।। अंजन नाचै अंजन गावै, अंजन भेष अनंत दिखावे ।। अंजन कहाँ कहाँ लग केता, दांन पुनि तप तीरथ जेता ।। कहै कबीर कोइ विरला जागै, अंजन छाड़ि निरंजन लागे । शब्दार्थ-निरजन = माया रहित तत्त्व । अंजन= माया ।। सन्दर्भ-कवीर कहते हैं कि यह समस्त संसार माया का ही पसारा है। भावार्थ-माया रहित राम समस्त जगत से परे एव भिन्न है। यह समस्त जगत केवल माया का प्रसार है । ओकार की उत्पत्ति माया से है, माया ने ही इन विभिन्न नाम-स्पो मे विस्तार किया है । ब्रह्मा, शकर, इन्द्र तथा गोपियो के साथ रहने वाली कृष्ण ममी कुछ माया ही है। वाणी और वेद माया ही हैं। माया ने ही ये विभिन्न रूपात्मक भेद किए हैं अथवा माया के प्रश्रय से ही यह रूपात्मक जगत