पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४७१

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७८६] [ कबिर मन न डिगै ताथै तन न डराई,

              केवल रांस रहे ल्यौ लाई। टेक।

अति अथाह जल गहर गभीर, बांधि जजीर जलि बोरे है कबीर॥ जल की तरँग उठि कटि है जजीर, हरि सुमिरन बैठे हैं कबीर॥ कहै कबीर मेरे संग न साथ, जल थल मै राखै जगनांथ॥ शब्दार्थ-दिगै=विचलित होता है। ल्यौ=लगन, लौ। सन्दर्भ-कबीर सिध्दावस्था का वर्णन करते हैं। भावार्थ-मेरा मन अब विषय-वासनाओ के करण विचलित नही होता है अर्थात मैं अब सासारिक सुखों के प्रति आसक्त नही रहा हुँ। इसी कारण मुझ को अब अपने शरीर की ओर से भी भय नही है अर्थात मुझको इस बात की जरा भी आशका नही है कि मेरी ज्ञानेन्द्रयाँ मुभ्क को विषयों के प्रति प्र्वृत्त हो जाएंगी। मैने केवल भगवान राम के प्रति अपनी लगन लगा रखा है। यह ससार रूपी जल अत्यन्त गहरा और गम्भीर था। कर्मों की श्रृखला ने कबीर को बांध कर इसमे डुबो दिया था। इस ससार रूपी जल मे ही ईश्वर भक्ति की लहर उठी और कर्म-बन्धन की वह जजीर टुट गई। कबीर संसार-सागर से निकलकर हरिस्मरण रूपी तट पर जाकर बैठ गये हैं। कबीर कहते हैं कि मेरा कोई संगी-साथी नही है अर्थात ससार के किसी भी व्यक्ति के प्रति मैं अनुरक्त नही हुँ। जल-थल मे सर्वत्र मेरी रक्षा करने वाले तो एक मात्र जगत के स्वामी भगवान ही हैं। अलंकार-(१)पदमैत्री-मन न-डराई। (२) रूपक-हरि सुमिरन तट। (३) रूपकातिशयोक्ति की व्यंजना-जल जजीर। (४) विभावना की व्यजना-जल की तरंग-जंजीर। विशेष-(१) मन पर नियन्त्रण आवश्यक है। मन पर नियन्त्रण होते ही इन्द्रयाँ वश मे हो जाती हैं। (२) भक्ति के लिए संसार त्याग की आवश्यकता नही है। भक्ति तो मन की दशा विशेष है। जल की तरंग उठि मे यही व्यंजना है। (३) जल की तरंग कटि हैं जंजीर। मन के अन्तमुँखी होते ही समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है। यथा-

     सम्मुख होइ जोव मोहि जव हें। जन्म कोटि अध नासहि तबहिं।
                                               (रामचरितमानस)

(४) तट बैठे हैं कबीर- तट पर बैठने का अभिप्रत है-तटस्थ दृष्टि हो जाने। व्यक्ति ससार मे लिप्त नही रहता है। वह समस्त घटनाओ का हृष्टापात्र हो जाता है। कबीर का कहना है कि राम-भजन के प्रभाव से वह राग द्रोष से मुक्त हो गये हैं।