पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४७४

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ग्रंन्यावली ] [ ७८ ९

                        ( ३४४ )
       हरिजन हस दसा लिये डोलै, 
                     निर्मल नांव चवै जस बोले ।।टेक ॥
       मान सरोवर तट के बासी, रांम चरन चित आंन उदासी ।।
       मुकताहल बिन चच न लांवै, सौंनि गहै के हरि गुन गांवै ।।
       कऊवा कुबधि निकट नही आवै, सो हसा निज दरसन पावै ।।
       कहे कबीर सोई जन तेरा, खोर नीर का करै नबेरा॥ 
      शब्दाथ्र॔---हँप-ज्ञानी, शुध्द विवेकी । आन= अन्य वस्तुएँ । चव-च-धुर्वे,

निस्मृत होता है ।

      संदर्भ-कबीर सच्चे भक्त का वर्णन करते है ।
      भावार्थ-भगवान के भक्त हस की भाँति ससार से विचरण करते है अर्थात् वे जीवन से विवेकपूर्ण आचरण करते हैं । उनके मुख से भगवान का निर्मल नाम सहज रूप से सदैव निकलता रहता है । वे सदैव भगवान का गुणगान करते हैं । वे मानसरोवर के किनारे रहते हैं । उनका हृदय राम के चरणों मे ही लगा रहता है तथा जगत की अन्य सभी वस्तुओं के प्रति वे उदासीन रहते हैं । ये हंस ज्ञान एवं भक्ति रूपी मोती के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का स्पर्श भी नहीं करते हैं । वे या तो मौन रहते हैं, सबका भगवान का गुगागान करते हैं (उनके मुँह से राम-गुणु-चर्चा के अतिरिक्त अन्य कोई वात निकलती ही नही है ।) कुबुद्धि रूपी कौआ इन मुक्तात्मा रूपी हसो के पास तक नहीं फटकता है । ऐसे ही विवेकी सतो को आत्म- स्वरूप का साक्षात्कार हो पाता है । कबीरदास कहते हैं कि जो भक्त नीर-क्षीर का विवेक कर पाता है अर्थात् जो सत्यासत्य का निर्णय करने मे समर्थ होता है, वही तेरा सच्चा भक्त है ।
    अलका.-- साग रूपक-सम्पूर्ण पद।
    विशेष--(१) हस सोअहम् का अपभ्र श रूप है । तात्पर्य आत्मज्ञानी है ।
    (11) मानसरोवर - कायायोग में मानसरोवर का अर्थ शुन्य- शिख्रर-व्रह्य

रन्ध है 1 राजयोग से इसका अर्थ 'बुद्धि मनस' होता है । जो सदैव हृदय रूपी सरोवर में आत्म-दर्शन करते रहते हैं और इस प्रकार अपने दोषो का प्रक्षालन करते रहते हैं ।

   (111) खीर नीर का निवेरा - हस के विषय मे यह प्रवाद प्रचलित है कि

वह दूध में से दूध तत्त्व को ग्रहण कर लेता है और पानी तत्व को छोड देता है । इस प्रवाद को लेकर ज्ञानी एव विवेकी जन का निरूपण करने की एक मान्य परम्परा है-

           जड चेतन गुण दौषमय विश्व कीन्ह करतार । 
           संत-हस पय-गुन गहहिं परिहरि जारि-धिकार ।
                                                 (गोस्वामी तुलसीदास)