पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४७७

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७६१] कबीर अपको इस आरे के नीचे कटवा देती थी क्योंकि उन्हे विश्वास था कि इस प्रकार वे स्वर्ग प्राप्ति के अधिकारी बनते थे। यह 'काशी करवट' कहलाती थी।

 आरा चलाने के कार्य नीचे ही नीचे गुप्त रुप से इस प्रकार होता था कि वह स्वचालित सा लगता था। इसका रहस्य खुलने पर अंग्रेज़ो ने इसका बन्द करा दिया।
                       (३४६)
        क्या ह्यं तेरे न्हाई धोई,
                  आतम रांम न चीन्हां सोई॥टेक॥
        क्या घट ऊपरि मंजन कीयै, भीतरी मैलि अपारा।
        रामं नांम बिन नरक न छूटै, जे धौवै सौ बारा॥
        का नट भेष भगवां बस्तर, भसम लगावै लोई॥
        ज्यू दादुर सुरसरी जल भीतरी,हरि बिन मुकति न होई॥
        परहरि कांम रांम कहि बौरे सुनि सिख बंधू मोरी। 
        हरि कौ नाॅव अभै पद दाता, कहै कबीरा कोरी॥
    शब्दार्थ-सोई=उसी। चिन्हा=पहिचाना। नट=तमाशा करने वाला,नाटक का पात्र ।

भगवा बस्तर=गेरुआ वस्त्र। सिख=सीख, शिक्षा । कोरी=कोली,जुलाहा। अभै=अभय।

   सन्दर्भ-कबीर कहते हैं कि वाह्याचार का त्याग करके राम के नाम का स्मरण करना चहिए। 
 भावार्थ-हे साधक, यदि तूने आत्माराम (आत्म-स्वरूप)को नही पहचाना है,तो तुम्हारे नहाने घोने आदि वाह्याचार से क्या लाभ है?जब अन्त कारण मे विषय वासनाओ का अपार मैल भरा हुआ है,तब ऊपर ऊपर से शरीर को स्नान कराने (धोकर साफ करने)से क्या लाभ हो सकता है? भले ही कोई व्यक्ति सौ बार स्नान करके शरीर को धो डाले,परन्तु राम-नाम के बिना नरक(पाप कर्म के फल ) से छुटकारा नही हो सकता है। लोग गेरुआ वस्त्र धारण करते हैं और भस्म लगाते हें, परन्तु इस प्रकार नाटक के पात्र के पात्र की तरह विभिन वेश धारण करने से क्या लाभ हो सकता है? जैसे मेढक सदैव गंगा जल के भीतर रहता है, परन्तु केवल गंगा जल मे ही रहने के कारण उनकी मोक्ष नही हो जाती है ,इसी प्रकार केवल गंगा स्नान करते हुए ही प्रभु के नाम स्मरण बिना मनुष्य की मुक्ति सम्भव नही है। हे भाई'तुम मेरी शिक मान लो हे पागल' तू विपय वासना का त्याग करके राम-नाम कहो।जुलाहा कबीर का निशिचत मत है कि हरि का नाम-स्मरण अभय पद-परद पद का देने वाला हे।
     अलंकार-१)वाऋक्ति-क्या है-पारा।
           २)निदशंना की व्यजना-राम नाम लोई।
           ३)उपमा-ज्यु दादुर होई।