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ग्रन्थावली ] [७६५

विशेष--समभाव के लिए गोस्वामी तुल्सीदास का यह कथन देखिए-- बडे भाग मानुष तन पावा । सुर नर मुनि सदूग्रन्थन गावा ।

नर तन सम नाहिं कवनिउ देही । जीव चराचर जाचत तेही नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी । ग्यान विराग भगति सुभ देनी । सो तनु घरि हरि भजहिंन जे नर । होहिं विषय रत मद तर । कांच किरिच बदलें ते लेही । कर ते डारि परस मनि देहीं ।

                                    (रामचरितमानस)

तथा--हरि, तुम बहुत अनुग्रह कीन्हो ।

    साधन-धाम बिवुध-दुरलभ तनु, मोहि कृपा कर दीन्हो ।  (विनयपत्रिफा)
                          (३४६)
     ऐसा ग्यांन बिचारि रे मनां, 
              हरि किन सुमिरे दुख भजनां ॥टेक॥
     जब लग मै मै मेरी करै, तब लग काज एक नही सरै ॥
     जब यहु मै मेरी मिटि जाइ, तब हरि काज सवारे आइ ॥
     जब लग स्यध रहै बन मांहि, तब लग यहु बन फूलै नांहिं ॥
     उलटि स्याल स्य्घ कूँ खाइ, तब यहु फूलै सब बनराइ ॥
     जीत्या डूबै हाग्या तिरै, गुर प्रसाद जीजत ही मरे ।
     दास कबीर कहै समझाइ, केवल राँम रहो ल्यौ लाइ ॥
     शब्दार्थ- भजना== नष्ट करने वाला । सरै= सिध्द हो गया । स्यध==शेर 

अहकार । फूलै== भक्ति-भावना का उदय । स्याल=चेतन । मरै = जीवनमुक्त ।

     सन्दर्भ--कबीरदास अहकार का त्याग करके राम भक्ति का उपदेश

देते हैं ।

     भावार्थ--रे मन, तू मन मे ऐसा विवेक धारण करता है । जिसमे दु खो

का नाश करने वाले प्रभु का भजन होने लगे ? जब तक 'मैं' ओर मेरी (अहभाव) मे लिप्त रहोगे, तब तक तुम्हारा एक भी कार्य सिध्द नही होगा । जब यह 'मैं' ओर 'मेरी' की भावना समाप्त हो जाएगी, तब भगवान स्वय आकर तुम्हारे सम्स्त कार्य पूरे कर देगे । जब तक अन्त करण रूपी वन मे अहकार रूपी शेर का निवास रहता है, तब तक इस अन्त करण रूपी वन मे भक्ति-भावना के फूल विकसित नही हो सकेगे । जब शुध्द बुध्द चैतन्य इस अह रूपी सिंह को समाप्त कर देगा, तभी यह अन्त करण रूपी वन झान ओर भक्ति को फूलो से युक्त हो जाए़़गा । इस दशा की प्राप्ति होने पर परिस्थिति एक दम बदल जाएगी । आज तक जिस अहकार ने चैतन्य को दबा रखा था, वह सदा-सर्वदा के लिए मुक्त हो जाएगा । इस समय साधक गुरु की कृपा प्राप्त करके जीवन्मुक्त हो जाता है । कबीरदास समर्भा