पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४८१

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७६६] [कबीर कर कहेते हैं कि इसीलिए हे जीव, तुम भगवान मे निरन्तर अपनी लो लगाए रहो । (यही कल्याण का मार्ग है)

    अलंकार--(१) रूपकातिशयोक्ति--स्यध, वन, स्याल ।
           (२) गूढोक्ति--किन सुमिर ।
           (३) विरोधाभास--उलटि स्याल खाइ; जीत्या, तिर, जीवत
               ही मर ।
    विशेष--(१) नाथ पथी प्रातीको का प्रयोग है ।
    (२) यह पद उलटवाँसी की शैली पर रचित है ।
    (३) 'अहकार' के रहते हुए प्रभु कसे आ सकते है ? प्रेम-गली अत्यन्त 
 सकरी है । इसमे 'मैं' ओर 'तु' मे एक ही रह सकता है ।
              प्रेम गली अति साँकरी तामे दो न समाँय ।
              रहिमन भरी सराइ लखि लोट मुसाफिर जाय ।
                          (३५०)
    जागि रे जीव जागि रे ।
    चोरन को डर बहुत कहत हैं, उठि उठि पहरै लागि रे ॥टेक॥
    ररा करि टोप मसां करि बखतर, ग्यान रतन करि षाग रे ।
    ऐसै जो अजराइल मारै, मस्तकि आवै भाग रे ॥
    ऐसी जागणीं जे को जागै, ता हरि देइ सुहाग रे ।
    कहै कबीर जाग्या ही चाहिये, क्या गृह क्या बैराग रे ॥
    शब्दार्थ--बखतर==कवच । वाग==खड्ग, तलवार । अजराइल==अजरा-

डल= मृत्यु का देवदूत ।

    सन्दर्भ--कबीर कहते हैं कि व्यक्ति को सदैव विवेकपूर्ण आचरण करना

चाहिए ।

    भावार्थ--रे जीव, जागो, जाग जाओ । इस जीवन मे (काम श्रोध, लोभ,

मोह मत्सर) रूपी चोरों का डर बहुत कहा जाता है । इसलिए तू उठ ओर उठकर पहरा लगा जिसमे वोध वृत्ति रूपी धन की रक्षा होती रहे ।) इसके लिए तू राम के नाम का इस प्रकार महारा ले--रकार का शिरस्त्राण बना तथा मकार का कवच बना । ज्ञान रूपी रत्न की तलवार बनाले । इससे अज्ञान रूपी मृत्यु के देव दूत पर तुम ऐसा वार करो कि अहकार-रूपी उसका मस्तक पर तुम्हारा अधि- कार हो जाए । ऐसी जाग मे जो कोई जागता है अर्थात जाग कर जो कोई इस प्रकार सावधान रहता है, उन पर भगवान अपने सोभाग्य की कृपा करते हें । तात्पयं यह हे कि जो आत्मा-सुन्दरी इस प्रकार की ज्ञानावस्था को प्राप्त करती है, उनको भगवान पति रुप मे प्राप्त होने हें अर्थात आत्मा का परमात्मा मे, सात का अनन्त मे तय हो जाता है । कबीर कहते हैं कि चाहे व्यत्ति गृहस्थ हो अथवा विरत्तू, उसको सदैव विकार रूपी चोरो के प्रति सावधान रहना ही चाहिए ।