पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४८४

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प्रन्थावली ] [७६६

           (iv)चपलातिशयोक्ति की व्यजना- जन जाग्या   रीते|
           (v)उपमा---विष से   पुरानण|
           (vi)रूपक---राम रतन|
     विशेष---(1)विष  पुराण---वेद-पुराण इत्यादि ज्ञान प्राप्ति के साघन मात्र है|सिद्धावस्था मे उनकी निरर्थकता स्वयं सिद्ध है| इस कथन के ऊपर अवि-द्यावत् विषयाणि सर्वशास्त्राणिं का प्रभाव स्पष्ट है| 
    (ii)अन्तिम पक्ति मे 'सोवौ' का पाठान्तर "सोवौ" है| अर्थ होगा--अब सोना नही है अर्थात् अब तुम मत सोओ| यह अर्थ भी सगत एव प्रसगानुकूल है|
    (iii)समभाव के लिए देखें---
                 अब लौं नसानी, अब न नसैहौ|
               X                            X
          पायौ नाम चारु चिंतामनि, डट कर ते न खसैहौ|
                                      (गोस्वामी तुलसीदास)
                          (३५३)
            सतनि एक अहेरा लाघा,
                   मिर्गनि खेत सबनि का खाधा ||टेक||
            या जगल मै पांचौ मृगा, एई खेत सबनि का चरिगा ||
            पारधीपनौं जे साधै कोई, अध खाधा सा राखै सोई||
            कहै कबीर जो पचैं मारै, आप तिरै और कूं तारै||
       शब्दार्थ---अहेरा=शिकार| लाधा=प्राप्त किया| मिर्गनि=मृगो ने| खाघा=खा डाला| पारधीपना=शिकारीपना|
       सन्दर्भ---कबीर का कहाना है कि इन्द्रियो को वश मे करने वाला भवसागर के पार जा सकता है|
       भावार्थ---सतो को एक शिकार प्राप्त होगई है|मृगो (काम-ऱोघादि अथवा पॉंचो इन्द्रियो के विषयो) ने सब लोगो के जीवन-रूपी खेत चर डाले है| इस संसार रूपी जगल मे पॉंच मृग (उपर्युक्त अनुसार) है| इन्होने ही समस्त प्राणियो के जीवन-रूपी खेतो को चर लिया| जो कोई व्याक्ति इन मृगो को मारने के लिए शिकारीपना धारण करते है, वह इन मृगो के आधे खाए हुए जीवन-रुप खेत की रक्षा कर लेता है| कबीर कहते है कि जो पॉंचो विकारो एव पॉंचो इन्द्रियो के विषयो को समाप्त कर देता है, वह स्वयं ही भवसागर के पार हो जाता है और अन्य लोगो  को भी पार करा देता है|
       अलंकार--(1)रूपकातिशयोक्ति--मृग खेत|
              (11)सागरूपक--खेत और जीवन के रूपक का निर्वाह है|
       विशेष- (1)पारधीपनौं जे साधे--विषयासक्ति पर नियन्त्रण के अनुपात मे ही साधक का कल्याण होता है|