पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४८५

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५००] [कबीर

   (11)समभाव के लिए देखे---
          जतन बिनु मिरगनि खेत उजारे|
       टारे टरत नहीं निसि-बासुरि, बिडरत नही बिडारे|
       अपने-अपने रस के लोभी, करतब न्यारे-न्यारे|
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      बुधि मेरी किरषी, गुरु मेरो बिभुका अविखर दोइ रखबारे|
                                             (कबीरदास)
                    (३५४)
      हरि कौ बिलौवनौं बिलोइ मेरी माई,
             एसें बिलोइ जैसै तत न जाई||टेक|
      तन करि मटकी मनहि बिलोइ, ता मटकी मै पवन समोइ||
      इला प्यगुला सुषमन नारी, बेगि बिलोइ ठाढी छछिहारी||
      कहै कबीर गुजरी बौरांनीं, मटकी फटीं जोति समांनीं||
       शब्दार्थ---बिलोवना= बिलोने की वस्तु| छछिहारी= छाछ लेने वाली नारियाऑं| गुजरी=गूजरी|
       सन्दर्भ---कबीर आत्मा को सम्बोधित करके ज्ञान प्राप्ति की बात करते है|
       भावार्थ---हे सखि, तुम इस जीवन-रूपी विलोवने को भगवान का समभ्क्त कर उन्ही के लिए बिलाओ| परन्तु इस प्रकार बिलोओ कि सारवस्तु (मक्खन रूपी तत्त्व) नष्ट न हो जाए| इस शरीर रूपी मटको मे मन रूपी दही को बिलोओ|उस मटकी मे प्राणायाम रूप जल समो दो|इसको जल्दी-जल्दी बिलोओ|छाछ लेने वाली इडा, पिंगला और सुषुम्ना रूपी नारियाऑं खडी हुई प्रतीक्षा कर रही हैं|कबीर कहते हैं कि जीवात्मा रूपी गूजरी इस बिलोने की क्रिया मे आत्मविस्मृत हो गई|फलस्वरूप यह मटकी फूट गई---शरीर के बन्धन समाप्त होगये और उसकी आत्म चेतना रूपी ज्योति उस महान ज्योति के साथ एकाकार होगई| सात का अनन्त मे लय होगया|
      अलंकार---सागरूपक---जीवन से भक्तिरस प्राप्त करने ओर दही बिलौने के रूपक का निर्वाह है|
        (i)रूपकातिशयोक्ति---बिलोवनो|
       विशेष---(1)हरि को बिलौवनो---ईश्वरार्पण वुद्धि से जीवन-यापन करो|
       (ii)तत---ज्ञान और भक्ति रूपी महारस|
       (iii)पवन समोइ---जैसे दही से मिलाया हुआ जल घी को दही से अलग कर देता है,वैसे ही प्राणायाम के प्रभाव से मन की वारानाओ का खट्टापन दूर हो जाता है,और उसमे भगवद प्रेम की स्निग्धता प्रमुख हो जाती है|
       (iv)छछिहारी---इडा पिंगला एव सुपुम्ना की चर्चा कायायोग के अन्तगंत|