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८०२] [कबीर

   अलंकार -- रुपक -- आसण पवन ।
   (11)वकोत्त्कि -- क्या सीगी ----- लगाये ।
   विशेष (1) धार्मिक वाह्याचार, विधि-विधान आदि केवल आडम्बर हैं। ये व्यर्थ हैं।
   (11) कबीर का कहना है कि अपने प्राणो पर नियन्त्रण  रख कर स्व-स्वरुप का साक्षात्कार करना चाहिए। इस प्रकार ज्ञान और भक्ति मे, शुध्द चैतन्य स्वरूप मे प्रतिष्ठित हो जाना चाहिए। ऐसी स्थिति मे अपनी सहज धम मे प्रतिष्ठित रहने पर पूजा और साधना के वहारी उपचारो की आवश्यकता नही रहती है।
              (३५६)
  ताथै कहिये लोकाचार,
          वेद कतेबक थै व्यौहार ॥टेक॥
  जारि वारि करि आवे देहा, मू वाँ पीछे प्रीति सनेहा ॥
  जीवत पित्रहि मारहि डंगा, मूं वां पित्र ले घालै गगा ॥
  जीवत पित्र कूं अन न ख्वांवै, मूॅवां पाछै प्यड भरांवै ॥
  जीवत पित्र कूँ बोलै अपराध, मुंवां पीछै देहि सराध ॥
  कहि कबीर सोहि अचिरज आवै, कऊवा खाइ पित्र क्यू     पावै ॥
  शब्दार्थ -- कतेव = कुरान, धर्म ग्रन्थ। मूवाँ = मरे । डगा = डडा । छाले = फेकते हैं ।
  सन्दर्भ -- कबीर दास कहते हैं कि वाह्याचार केवल दम्भ प्रेरित होते है।
  भावार्थ -- वेद और कुरान लोकिक आचरण क वर्णन करते हैं। इस कारण उनकी बातो को लोकाचार काहा जाना चाहिए। व्यक्ति अपने सम्बन्धियो के मृत शरीर को जलाकर उसका चिन्ह तक मिटा देते है और फिर उसके बाद रोपीट कर उसके प्रति अपनी प्रीति प्रकट करते है। पुत्र जीवित पित को लठ्ट से मारता है और मरने पर उसकी आस्थियो को गंगा के जल मे डालने के लिए पहुँचता है। वह जीवित पिता को तो भोजान भी नही देता है और मरने पर उसकी वुभुक्षा की शांति करने के लिए पिण्डदान क दिखावा करता है। जीते जी पिता को अनेक दोप देता है(और उसके प्रति कटु शब्द कहता है) और मरने पर श्राध्द के नाम पर श्रध्दा की अभिव्यक्ति का स्वाग करता है। कबीरदास कहते है कि इन समस्त वाह्याचारो को देख कर मुझको आश्चर्य होता है। कोए श्राध्द के जिस अन्न को खाते हैं, उसे पितृ-गण क्यों कर प्राप्त कर सकते हैं?
  अलकार -- (1) पदमैत्री--जारि बारि ।
  (11) बकोक्ति -- कउवा पावै ।
  विशेष---(1) सच्ची भावना से रहित कर्म काण्ड का खडन है।
  (11) कबीर ने यह नही विचार  किया कि जो पुत्र जीवित पिता की पूरी श्रध्दा-भक्ति से सेवा करता है, वह यदि उसके मरने पर श्राध्द आदि करता है, तो