पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ग्रन्थावली ] [८०३ यह सर्वथा उपयुक्त एव सगत है। कबीर वस्तुत ऐसे कुल मे उत्पन्न हुए थे जहाँ वेदाध्ययन कोसो नही दिखाई देता है। इसी कारण वह वेदो द्वारा प्रतिपादित धर्म तत्व का साक्षात्कार नही कर पाए। वह स्थूल रूप के परे पदार्थ के सूक्ष्मरूप का चिन्तन करने का अवसर ही न पा सके थे । (11) जीवन • गगा-कबीर के इस कथन पर सम्भवत इस प्रकार की लोकोक्तियो का प्रभाव है -- “मरे बबा की वडी-वडी अखियाँ” अथवा 'जियत बाप से लट्ठमलट्ठा । मरे बाप की सिट्टम सिट्टा ।”

           ( ३५७ ) 

बाप रांम सुनि बीनती मेरी,

      तुम्ह सूॅ प्रगट लोगनि सूँ चोरी ॥टेक॥

पहले क्षांम मुगध सति कीया, ता भै कपै मेरा जीया ॥ रांम राइ मेरा कह्या सुनीजै, पहले बकसि अब लेखा लीजै ॥ कहै कबीर बाप रांम राया, अबहूं सरनि तुम्हारी आया ॥

  शब्दार्थ-मुगध मति=मोहित बुद्धि । बकस=क्षमा । लेखा=ब्यौरा, हिसाव ।
  संदर्भ-कबीर भगवान से अपने कृत्यो के लिए क्षमा याचना करते है। 
  भावार्य-हे पिता राम, मेरी प्रार्थना सुन लीजिए । मैं अन्य लोगो से तो अपने अपराधी को छिपाता हूँ, परन्तु तुम्हारे सम्मुख वे प्रकट हैं। पहले काम ने मेरी बुद्धि को मोहित कर रखा था, और मैंने मूर्खता के कार्य किए। इसी कारण आपके सामने आते हुए मेरा हृदय कापता है (मुझे डर लगता है) । हे राजा राम आप मेरी विनती सुन लीजिए। पहले आप मेरे अपराधी को क्षमा कर दे और उसके बाद मेरे द्वारा किए गए कमों का हिसाब-किताब लगाइए । अब तो आपकी शरण मे आ गया हूँ। 
  अलकार-श्लेष-काम मुगधमति । 
  विशेष-(i) दैन्य की मार्मिक व्यजना है ।
  (ii) प्रपति एवं शरणागति की सहज भाव से अभिव्यक्ति है । 
  (iii) ‘बाद' मे ग्राम्यत्व बोष है । 
            ( ३५८ )
अजहूं बीच कैसे दरसन तोरा, 
        बिन दरसन मन मांने क्यूं मोरा ॥टेक॥ 
 हमहि कुसेवग क्या तुम्हहि अजांनां, दुह मैं दौस कहौ किन रांमां ॥ 
 तुम्ह कहियत त्रिभवन पति राजा, मन बछित सब पुरवन काजा ॥ 
 कहै कबीर हरि दरस दिखावौ, हम हि बुलावौकै तुम्ह चलि आवौ ॥