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८०४ ] [कबीर
शब्दार्थ-बीच=अन्तर, भेद बुद्धि । अजाना=अपरिचित । पुरवन=पूरा करने वाले । सन्दर्भ कबीर भगवान से भक्ति की याचना करते हुए कहते हैं । भावार्थ-हे प्रभु ! मेरे और आपके वीच मे अभी भी अन्तर है। अर्था मैं और आप एकाकार नही हो पाए हैं । तब आपका दर्शन किस प्रकार हो ? परन्तु आपके दर्शनी के बिना भी मेरा हृदय व्याकुल है । मैं भी कुसेवक हू अथवा आप भी अज्ञ हैं-मेरी आन्तरिक भावनाओं से परिचित नही हैं ? दोनो ही मे दोष है। हे राम, यह क्यो नही कहते हो ? तुम्हे तीनो लोको का स्वामी कहा जाता है और तुम मन की समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने मे समर्थ हो । कबीरदास कहते हैं कि हे भगवान, आप मुझे अपने दर्शन दें । या तो मुझे अपने पास बुला लें अथवा आप स्वय ही मेरे पास चले आएँ । अलंकार-(1) गूढोक्ति-कैसें “ तोरा । (11) सदेह-कुसेवक क्या तुम्हहि अजाना । विशेष-आप या तो मुझमे अद्वत-भावना जगाकर अपने आप मे मुझे लवलीन करलें अथवा ऐसी कृपा करें कि मुझे जीवन और जगत मे सर्वत्र आपकी व्यक्त प्रवृत्ति का सरस आभास प्राप्त होने लगे । प्रकारातर से भक्ति की याचना है । ( ३५६ )
क्यू लीजै गढ़ बका भाई,
दोवर कोट अरु तेवड़ खाई॥ कांम फिवाड़ दुख सुख दरबांनी, पाप पुनि दरवाजा । क्रोध प्रधान लोभ बड़ दूंदर, मन में वासी राजा ॥ स्वाद सनाह टोप ममिता का कुबधि कमांण चढ़ाई । त्रिसना तीर रहे तन भीतरि, सुबधि हाथि नहीं औई ॥ प्रेम पलीता सुरति नालि करि, गोला ग्यांन चलाया । वृह्म अग्नि ले दिया पलीता, एकै चोट ढहाया ॥ सत संतोष ले लरनै लागे, तोरे दस दरवाजा । साध संग्रति अरु गुर की कृपा थै, पकरयौ गढ़ कौ राजा ॥ भगवत सीर सकति सुमिरण की, काटि काल की पासी । दास कबीर चढ़े गढ़ ऊपरि, राज दियौ अविनासी ॥
शब्दार्थ-क्यूँ =किस प्रकार । गढ=किला, शरीर । वको=टेढा, दुर्गम कठिन । लीजै=विजय प्राप्त की जाए । दीवर=दोहरा अथवा द्वैत भाव । काठ= परकोटा, दीवाल । दोवर कोट=अन्नमय एवं प्राणमय कोष । तेवर=तिहरी । तेयर खाई=तीन खाइयाँ-मनोमय, विज्ञानमय एव आनन्दमय कोप अथवा तीन गुण । दरवानी=पहरेदारी । दूदर=द्वन्द्व । मैवासी=नायक, किलेदार । सनाह =मन्नाह=कवच । टोप=शिरस्त्त्राण् । भगवन = भगवत कर्म । पासी=पाश ।