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ग्रन्थावली ] [५०७

आ गए हें। यह शरीर कच्ची मिट्टी के बर्तन (करुए) के समान है। इसमे जीवन रुपी पानी अधिक समय तक नही टिक पाता है। बोघ रूप हस के निकम जाने पर यह शरीर रुपी कमल कुम्हला कर नष्ट हो जाता है जीवात्मा यह सब कुछ समभ्कती हुई कहती है कि प्रिय समागम मे सम्भाव्य कष्ट की कलपना करेक मेरा मन भय के कारण थर-थर काँपता है कि मिलने पर प्रियतम न मालूम मेरी क्या दुर्दशा करेगा? 
    परन्तु इतने पर भी मन प्रियतम के दशांनो के लिए उत्सुक है। उनके आगमन की प्रतीक्षा मे कौए उडाते-उडाते मेरी बांहो मे दर्द होने लगा है । परन्तु प्रियतम अभी तक नही आए हैं। कबीरदास कहते है कि एस प्रकार जीवात्मा की कथा समाप्त होती है कि वह परमात्मा से मिलना तो चहती है,परंतु मिलन के लिए सधना करना चाहती है।
  अलकार- (i) रुपकातिशयोक्ति-- रैनि, दिन, भवर, वग, कवै, हस।
         (ii) पुनरुत्कि प्रकाश-- थर थर।
         (iii) शलेष पुष्ठ रूपक-- पानी।
  विशेष-- (i) 'करूव उडावत- यह एक लोक प्रचलित परम्परा है कि नारियाँ  कौआ उडा कर अपने प्रियजन के आगमन के शकुन का विचार करती है।
         (ii) रहस्यवाद की मार्मिक व्यंजना है।
         (iii) सरल रुपको द्वारा ह्र्दय स्पर्शी भाव व्यजना की गई है। ऐसे पद कबीर के उत्कृष्ट के प्रमाण हैं,
         (iv) कामासत्कि के इस भकती-पद मे भकती-भावना एव लोकिक प्रेम दोनो की रसावस्था की अनुभूति है।
         (v) इस पद मे मान्य साधक जीवन के क्रामिक तथा उसके पार-स्परिक समन्वय की सुन्दर व्यजना है।इसमे साधना के जिवन का पूरा लोका-खोखा भी है। अभिप्रेत यह है कि साधक प्राय पूरी निष्ठा एव तत्परता के साथ साघना में रत नही होते हैं। वे 'कौवा' ही उडाते रहते हैं और उनका जीवन समाप्त हो जाता है। यदि अंतिम पत्कि का यस अर्थ किया जाए कि हे प्रभु ' आप की प्रतीक्षा करते करते मैं तो थख गई हूँ। अब मैं मरणासन्न हूँ , शीघ्र ही दर्शन दे दो, तब यह कथन एक भक्त का कथन हो जाएगा और इसमे सूफी पद्दति कि विरह-व्यजना मानी जाएगी। इस प्रकार इस पद मे हमको ज्ञान, भक्ति और रहस्य- वाद तीनो का सुन्दर समन्वय दिखाई देता है।
               (३६१)
  काहे कूँ भीति बनाऊ टाटी,
                  का जानुं कहा परिहै माटी ॥ टक॥

काहे कू मदिर महल चिणाऊं, मू वां पीछै घडी एक रहण न पाऊ॥ काहे कू छाऊं ऊंच उंचेरा, साढे तीनि हाथ घर मेरा ॥ कहै कबीर नर गरव न कीजै, जेता तन तेति भुइ लीजै॥