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ग्रन्थावली] [८०६

   जब लग घट मै दूजी आंण, तब लग महलिन पावैं जांण ।
   रमित राम सू लागै रग, कहै कबीर ते निर्मल आग ॥
   
  शब्दार्थ-गमि=अगमय अथवा द्वारा । सहर=पाठान्तर सुहरि, अथवा सहचर=आत्माराम । आदित=आदित्यवार, सूर्यवार-इतवार । मनसा-सकल,

प्रेम रूपी सकल्प । यंभ=स्तम्भ । अहनिसि दिन रात । रख्या=रखा जाए । बाइ-वायु । माहीत=लगाओ । पच लौक= पाँच विकार (काम, क्रोध लोभ, गोह मत्सर) । पकज सहस्त्रार । कुसमल-कल्मष। सुरषी=सुरक्षित, नियत्रित । यवर=स्थावर । थिर-स्थिर । दीवाटि=दीप यष्टि, दीयाघार ।

  सदर्भ-कबीर योग-साधना विधि का वर्णन करते हैं । सप्ताह भर के व्रतों

का नवीन साधना-परक एव अध्यात्मिक अर्थ दिया गया है ।

  भावार्थ-कबीर कहते हैं कि प्रत्येक वार को हरि का गुणगान करना

चाहिए । तव गुरु के द्वारा आत्माराम का कठिन रहस्य जाना जा सकता है । रविवार के दिन इस भक्ति-साधना को आरम्भ करों । इसके लिए शरीर रूपी मदिर को भगवद्प्रेम के सकल्प रूपी खम्भे का आधार प्रदान करो । इससे अखण्ड नाम कीर्तन की मधुर स्वरी दिन रात हृदय से प्रवेश करेगी तथा अनहद नाद की वीणा भी सहज से ही सुनाई देगी । सोमवार के दिन सहस्नार के चन्द्रमा से अमृत झरता है।उसके चखने मात्र से शरीर की तपन (कष्ट) से शीघ्र ही मुक्ति मिल जाती है। जीभ उलट कर अमृत के एस द्वार को रोक लेती है और एस रस मे म्गन मन इसको पीता रहता है।मगलवार को उस परम तत्व मे मन की लौ लगा दो तथा पाँचो विकारो की रीति छोड दो अर्थात् काम क्रोधादि पच विकारों के वशीभूत होना छोड दो । घर छोड कर बाहर मत जाओ (गृहस्थ के कर्तव्यो एव धर्म से विमुख भत वनो) अन्यथा राजा राम बहुत रुष्ट हो जाएँगे ।

  बुधवार के दिन बुद्धि मे ज्ञान का प्रकाश करो । ह्रदय कमल मे भगवान कानिवास है । गुरु के द्वारा प्राप्त ज्ञान के द्वारा ज्ञान एव प्रेम को समान भाव से ग्रहण करना चाहिए अथवा इडा-पिंगला को सम करे तथा सहस्त्रार कमल को उलटे से सीधा कर दे-अधोमुखी ऊध्र्वमुखी कर देना चाहिए । वृहस्पतिवार को समस्तविषयों को फेंकदे और तीनो देवताओं (त्रिगुण) को एक स्थान पर लगादे--ब्रह्म मेंलीन कर दे । त्रिकुटी स्थान की इडा, पिंगला और सुपुम्ता तीन नदियों में रातदिन अपने कल्मषो तथा विषय-राग को घोता रहे । शुक्रवार को साधना का अमृत लेकर यह व्रत धारण कर कि मैं रात-दिन अपने मन की कुवासनाओं से जूझता रहूँगा । हसके साथ पाँचो ज्ञानेन्दियों पर पूर्ण नियन्त्रण रखे । तब दूसरी दृष्टि (द्वैत भावना अथवा अन्य साधना के झुति आसक्ति) व्यक्ति के मन-मानस से घुसेंगे ही नहीं । शनिवार को अपना हृदय स्थिर करे तथा अन्त करण में उसी परम ज्योति को प्रेम एव ज्ञानवृत्तियो के दीयाधार मे रखकर प्रकाशित कर दे । इस उव्ररैक्वत के द्वारा बाहर-भीतर दोनो ही स्थानो पर प्रकाश होगा और समस्त कर्मफल समाप्त