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८२०] [कबीर हो जाएगे। जब तक अन्तःकरण मे द्वैत की भावना है, भैद-बुध्दि है, तब तक शरीर स्थित मन्दिर, जिसमे प्रभु क वास है, का रहस्य प्राप्त नही किया जा सकता है । कबीरदास कहते हैं कि राम मे रमण करते हुए मन पर राम के अनुराग का रंग चढ जाता है और अन्तःकरण निर्मल हो जाता है।
अलंकार-(i) पुनरुक्ति प्रकाश--बार बार (ii) रूपक - काया थंभ । अनहद बेन । हिरदा कवल। (iii) छेकनुप्रास-गुण गावै, गुर गमि;अखड अहनिसि;सोमवार ससि । मन मतिवाला। (iv) वृत्यानुप्रास- रमिता राम रंग । (vi) रूपकातिशयोक्ति-ससि,दुवार,दोऊ । महलि। (vii) चपलातिशयोक्ति-चाखत निसतरै। विशेष-(i) ये समस्त मान्यताएँ योगियो मे प्रचलित हैं जो अद्धतन किसी न किसी रूप मे कबीर पथियो मे भी मानी जाती हैं। (ii) जिनि बाहिर जाइ-कबीर संसार छिडने की बात नही कहते हैं।उनका तो निशिचित मन था कि अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए हि सच्ची भक्ति हो सकती है। वह स्वय जुलाहे का व्यवसाय करते थे। (iii) अनहद बेन-देखें टिप्पणी पद सख्या १५७ । (iv) ससि देखे टिप्पणी पद सं ४,७,२१० । (v) त्रिकुटी-देखें टिप्पणी पद सं० ३,४। (vi) त्रिकुटी सगम-देखें टिप्पणी पद सं० ७। (vii) सहज-देखें टिप्पणी पद स० १५५ (viii) बाहर भीतर-प्रकाश वाह्य दृष्टि द्वारा सत्यासत्य का विवेक होता है तथा अन्त दृष्टि द्वारा सत्य की अनुभूति हिती है । गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है कि- राम नाम सणि दीप धरि जीह देहरी द्वार । तुलसी भितर बाहिरेहु जो चाहसि उजियार । (३६३) राम भजै सो जांनिये,जाके आतुर नांहीं । सत संतोष लीयै रहै, धीरज मन मांहीं ॥ जन कौ काम क्रोध व्यापै नहीं,त्रिष्णां न जरावै । प्रफुलित आनंद मै, गीब्यंद गुण गावै ॥ जन कौ पर निद्धा भावै नहीं, अरु असति न भषै। काल कलपनां मेटि करि, चरनूं चित राखै ॥ जन सम द्रिष्टी सीतल सदा, दुविधा नही आनै। कहै कबीर ता दास सूं मेरा मन मांनै ॥