पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४९८

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ग्रन्थावलि ]

         तीनि बेर पतियारा लीन्हां, मन कठोर अजहूँ न पतीनां ।।
         कहै कबीर हमारै गोब्यंद, चौथे पद ले जन का ज्यद ।।
         शब्दार्थ--जोर==शक्ति । हस्ती=हाथी । साटी=डंडा, कोडा । घाली==
   डालता हू । पोट=पोटला, गठरी । कुंजर==हाथी । पतीना=विश्वास किया।
   जिंद=जीव । चौथे पद----युद्ध मुक्त ।
         संदर्भ--कबीरदास प्रभु की महिमा का वर्णन करते है ।
        भावार्थ--अहो मेरे गोविंद भगवान, शक्ति की महिमा अपार है । काजी ने
    बकवास कि इसे हाथी से मरवा दो । मेरे हाथो को अच्छी तरह बाँध कर हाथी के
    सामने डाल दिया गया । हाथी ने क्रोध करके सिर पर प्रहार किया । वह चीख
    मारकर स्वय ही भागा । मैं भगवान के उस स्वरूप की बलिहारी जाता हूँ जिसने
    हाथी को ऐसी प्रेरणा प्रदान की । काजी ने कहा, रे महावस, मैं तुमको कोडे
    लगवा दूंगा और इस हाथी को मरवा दूंगा तथा कटवा डालू'गा । परन्तु हाथी ने
    मुझको नहीं मारा । वह भगवान का ध्यान धारण किए हुए था । उसके ह्र्दय मे तो
    भगवान बसे हुए थे ।" कबीर बोचते हैं की सत कबीर ने क्या अपराध किया था,
    उसकी पोटली बनाकर उसे हाथी के समक्ष डाल दिया गया । भगवान ने हाथी को
    ज्ञान प्रदान किया । वह उठ गठरी (शरीर के वधे हुए शरीर) को बार-बार प्रणाम
    करने लगा, परन्तु उस मूखे काजी की समझ से अभी भी नहीं आया । उसने इसी
    प्रकार तीन बार हाथी को आज माया, परन्तु उस निष्ठुर हृरय (जड़ हृदय) वाले
    काजी के मम में फिर भी भगवान के प्रति विश्वास जाग्रत नही हुआ । कबीर कहते
    हैं कि हे मेरे गोविंद स्वामी इस भक्त जीव को चौथे पद (सायुज्य मुक्ति) कर
    लीजिए ।
          विशेष-- इस पद द्वारा उस जनश्रति की पुष्टि होती है जिसके अनुसार
    लोदी ने कबीर को हाथी मे पैर के नीचे डलवा दिया था।
          इस पद में कबीर ने प्रभू की महिमा का वर्णन सगुण भक्तों की पद्धति पर
    किया है । यथा- 
                    अब के राखि लेउ भगवान।
             हों अनाथ बैठ्यो द्रुम-डटियाँ, पारधि साधेवान ।
             ताके डट से भाज्यों चाहत, ऊपर दुक्यो समान ।
             दुहूं भाँति दुख भयो आदि यह, कौन उवारै प्रान?
             सुमिरत ही अहि डस्यो पारधी, कर छूदृयी सधान ।
             सूरदास, सर लायो सचानहिं, जय-जय कृपानिधान है।    (सूरदास)
                            ( ३६६ )
             कुसल खेम करु सलामति, ए दोह काकी दीरुहां रे ।
             आवत जांत दुहंघा लुटे, सवे तत हरि लीन्हां रे ।। टेक ।।