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६१४] [कबीर
माया मोह मद मै पीया,मुगध कहै यहु मेरी रे । दिवस चारि भलै मन रजै,यहु नाही किस केरी रे ॥ सुर नर गुनि जन पीर अवलिया,मीरां पैदा कींन्हां रे । कोटिक भये कहां लूं बरनूं सबनि पयानां दींन्हां रे ॥ धरती पवन अकास जाइगा, चद जाइगा सूरा रे ॥ हम नांहीं तुम्ह नांहीं रे भाई,रहे रांम भरपूरा रे ॥ कुसलहि कुसल करत जग खींना,पड़े काल भौ पासी । कहै कबीर सबै जग बिनस्या,रहे रांम अबिनासी ॥ शब्दार्थ-- खेम==क्षेम । सही सलामत==पूर्ण सुख-सुविधा । दहूंधा==दोनो समय । सुव==सव । मुगध=मूर्ख । अवलिया==औलिया, पहुँचा हुआ मुसलमान फकीर,सिद्ध पुरूष । पीर==मुसलमानो का धर्म गुरू । मीरा==श्रेष्ठजन ।पयाना== प्रयाण । खीना=क्षीण हुआ है । पासी=फाँसी । विनस्या=नष्ट हो गया । सन्दर्भ-कबीर स्ंसार की निस्सारता का वर्णन करते हैं । भावार्थ-कुशल-क्षेत्र और पूर्ण सुख-सुविधापुर्वक रहना ये दोनों बातें एक साथ संसार में किसी को प्राप्त नहीं होती हैं अर्थात् इस संसार से आते समय और जाते समय दोनों ही अवसरों पर हम लूटे जाते हैं और यहाँ हमारा समस्त तत्व हरण कर लिया जाता है अर्थात् इस जीवन में हम अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप को सर्वथा भूल जाते हैं । यह जीव माया-मोह की शराब पिये रहता है और फिर वह मूर्ख यह कहता है कि यह सब सम्पत्ति मेरी है । मानव चार दिन के लिये भले ही अपना मन बहला ले,किन्तु यह माया(सांसारिक सम्पत्ति)किसी की नहीं है। देवता,मनुष्य,मुनि,भक्त्त्त,धर्मगुरू,सिद्ध महात्मा,श्रेष्ठजन आदि अनेक प्रकार के व्यक्ति भगवान ने उत्पन्न किए हैं। इस प्रकार के करोडों पैदा हुए,उनका वर्णन कहाँ तक करूँ? परन्तु सब के सब इस संसार से प्रस्थान कर गये। पृथ्वी, वायु,आकाश,सूर्य और चन्द्र सभी नष्ट हो जाएँगे,सभी नश्वर है। न हम रहेंगे न तुम रहोगे और न हमारे भाई-बन्धु रहेंगे। केवल एक राम ही रहेंगे,वे ही सर्वत्र व्याप्त हैं।कुशलता का उपक्रम करता ही करता यह संसार नष्ट होता है और मृत्यु के बन्धन में पड़्ता है। कबीर कहतें है कि सारा जगत विनष्ट हो जाता है।(नाशवान हे) केवल अविनाशी राम ही रह जाते हैं ( केवल राम ही अविनाशि है) अलंकार- (१)वकोक्ति-ए दोइरे। (२)वृत्यानुप्रास-माया मोह मद मुगध। (३)रूपक-माया मोह मद,काल पासी। (४)सभंग पद यमक-कुसलहि कुसल। विशेष-(१)संसार की असारता के वर्णन द्वारा वैराग्य का प्रतिपादन है। (२)'निर्वेद' संचारी की व्यजना है।