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कबीर की साखियाँं, पदो एवं अन्य रचनाओ से ऐसी ही न जाने कितनी पंक्तियॉं निकाली जा सकती हैं जो भावना-तत्व से ओत-प्रोत है । दुलहिन गावहु मगल चार 'इसी कोटि का पद है । सबकी आलोचना करने वाला, सबको डाट फटकार कर दोष निदंशन करने वाला कबीर, फक्कड, अवखड़, मस्त कबीर इतना रससिक्त होगा, यह आश्चर्य की बात प्रतीत होती है। इतनी बाह्य कठोरता के बावजूद भी कबीर अन्तस बड़ा कोमल था इसलिए वह कहता है :-

( १ )

सन घट रमता सांइया सुनी सेज न कोय॥

( २ )

लागी लगन छूटै नहीं जीभ चोंच जरि जाय।
मीठा कहा अंगार में जाहि चकोर चबाय॥

( ३ )

कहै कबीर मुख कहा न जाई, ना कागद पर अंक चढ़ाई।
मानो मुंगेसम गुड़ खाई, कैसे बचन उचारा हो ॥

संगीत मे राग का जो महत्व और उपयोगिता होती है वही काव्य जगत के अन्तर्गत कल्पना का स्थान है। शब्द जगत मे राग जिस दायित्व की पूर्ति करता है। उसी दायित्व को भाव जगत मे कल्पना का उद्भव, विधान एवं विकास होता है। कल्पना-शक्ति एवं प्रकार का सौन्दर्य-वोधात्मक एव चेतनता से सम्पन्न व्यापार है । कल्पना काव्य सौन्दर्य के विकास मे विशेष सहायक होनी है । कवि के सौन्दर्य त्रोव को शक्ति देने का बहुत कुछ श्रेय इसी कल्पना को है। कल्पना के समागत से कविता रुचिर मनोवेगो के हेतु रमणीयता का सजंन करती है। कल्पना का क्षेत्र व्यापक , व्यापार अद्भभुत तथा कार्य महत्वपूर्ण है। आचार्य मम्मट ने अपने 'का व्यप्रकान' मे व्यक्ति को विशेष सस्कारो फलस्वरूप कविता वीज रूप नमुरपन्न माना है। सस्कृत के आचर्यों ने कल्पना के स्थान पर पक्ति का प्रतिभा की स्थितप्रतिपादन किया है