पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५०४

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अलंकार--१)साग रूपक पूरा पद |

      २)रूपकातिशयोक्ति---सुहागिन|
       ३)उपमा---विष  (के समान)|जैसे डाइनि|
      ४)विशेषोक्ति की व्यजना---खसम मरै वा नारि न रोवे|

विशेष---१)शाक्त के प्रति विरोध प्रकट है|

२)वाहिर टरी--पिटी |ठीक ही  है--
 भागती फिरती थी दुनिया जब तलब करते थे हम|
 अब जो नफरत हमने की ,वह खुद-बखुद आने को है|
              (३७१)
परोसनि मांगै कंत हमारा,
    पीव क्यू बौरो मिलहि उधारा ||टेक||
मासा मांगौ रती न देऊ,घटे मेरा प्रेम तौ कासनि लेऊं||
राखि परोसनि लरिका मोरा,जे कछु पाऊं सु आधा तोरा||
बन बन ढूढों नैन भरि जोऊं,पीव मिले तौ विलखि करि रोऊ||
कहै कबीर यहु सहज हमारा, बिरली सुहागनि कंत पियारा||
 शब्दार्थ---परोसनी=अनय  सासारिक आत्मा, माया|  कत=पति,

परमात्मा|वौरी=पागल|कासनि=किससे|पुत्र=विवेक|

 सन्दर्भ---कबीर का कहना है कि राम के प्रति सच्चा अनुराग किसी किसी

को ही होता है|यह भक्त ज्ञानों एवं साधक जीवात्मा के रूप मे अपनी सहजानुभूति को व्यक्त करते है|

 भावार्थ---माया रूपि है पडोसनि,तुम मुझसे मेरा परमात्मा रूपी पति

माँग रही हो?पर,हे पगली,पति कही उधार मिलता है?(परमात्मा की प्राप्ति स्यय साधना करने पर होती है|सिद्धि उधार अथवा किराए पर मिलने वाली वस्तु नही है|)तुम माशा भर मांगो ,मैं रत्ती भर भी नही दूंगी । यदी उधार देने के कारण अथवा यों ही दे देने के कारण ,परमात्मा के प्रति मेरे प्रेम मे भी कमी आ गैई है,तो फिर उसकी पूर्ति मैं कहा से करूंगी?हे मेरी आत्मा रूपी पडोसिन, तू मेरे कर्म-बन्धन रूप पुत्र की रखवाली कर| एसा करने पर परमेश्वर रूपि पति से मुझे जो आनन्द-भक्ति की प्राप्ति होगी ,उसमे से आधा तुझको दे दूंगी |मैं वन-वन अर्थात विभिन्न साधनाओं मे अपने पति को ढूंढ रही हूं और नेत्रों की शक्ति भर उसको चारो ओर देखती फिरती हूँ ओर प्रियतम के दर्शन होने पर प्रमातिरेक के कारण फूट फूट कर रोती हूँ|कबीर कहते है कि अपने परमात्मा रूपी पति से प्रेम करना जीवात्मा रूपी पत्नी का सहज स्वभाव है|परन्तु फिर भी विरली आत्मा रूपी सौभाग्यवती नारी को अपने परमात्मा रूपी पति से वास्तदिक प्रेम होता है|