पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५१०

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गऩयावली ] [ ८२५

    भावार्थ--हे राम, नीर्वल वालक की भाति मुभ गोद मे लेने की क्र्पा करे । अर्थात अपना संऱक्षण प्रदान करे । कलीकाल ने मुजको मार कर(शुध्द चैतन्य स्वरूप से वचित करके) विषय-वासनओ मे डुअ दिया है। हे भद्र मगहाश्यो तुम है प्रभु के देश मे जाना है ओर देखना है कि वहा के निवसि किस प्रकार रहते है-- उनकी रहन-सहन कंसी है । हे काग, तुभे उड कर उन्के देस को जाना है, जिनसे मेरा मन लगा हुआ है। बजार ढूढना और नगर को ढूढ लेना गाव के किनारे हि ढूढ कर मत चले आना। प्रियतम के बिना मेरी वही द्शा हे जो जल के बिन हस कि त्तथा सूर्य के बिन रात्रि कि होती है। कबीर कह्ते है कि मेरी जीवत्म अप्ने पति परमात्मा को परो पकडकर मना लूगा अपने अनुकुलन कर लूगा।
   अमल्कार--(I) पुनरूत्ति प्रकाश -किन किन ।
           (II)उपमा--निदरक सुत॥
           (III)रूपक--विष ।
   विशेष--(I) सूफी प्रेम-पध्द्ति के दम्प्त्य-प्रेम  का प्रभाव सम्पश्तट है।
जाेयसी ने भी लिखा है--
          विय सो कहेउ सदेसडा हे भैवरा हे कागा ।
     सो धनि धिरहै जरि मुई ज़ेहि के