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८२६ ] [ कबीर

     सन्दर्भ--- कबीर सच्चे योगी के लक्षणो क वणंन करते है। 
     भावार्थ-- वही सच्चा योगी है जो सहज भाव मे स्थित है अथवा जिसके मन मे प्रभु के प्रति स्वाभाविक प्रेम है तथा जो भगवान की प्रीति कि हि याचना करता है। जो अनाह्द नाद का ही श्रूगी नाद सुनता है और जो काम-कोधादिक विषयो एवं शास्त्रर्थ मे नही फसता है। गुरु के द्वरा दिया गया   ज्ञान ही उसके मन को स्थिर करने वाली मुद्रा है। वह अपनी त्रिकुटी मे परम तत्व का धयान करता है और गुरु के ज्ञान को प्राप्त करके उसी पर के ध्यान लगाये रहता है। वह अपनी काया-रूपि काशी मे निवास करता है। वही पर उसके लिय्ये परम-ज्योति स्वरूप भगवान प्रकाशित होते है। वह ज्ञान रूपी मेखला को धारण करके सहज भाव मे स्थित रहता है। वह सुषुम्ना के ऊपरी भाग मे स्थित  बक नाल से भुरने वाले अम्रुत रस का पान करते है। इसके लिये वह मूलाधार को बान्ध देता है (योगी प्राणो कि अग्नि से कुण्डलिनि को सीधा करके उसे सुषुम्ना मे प्रविष्ट करा देता है और मूल बध लगा देता है। यह अम्रुत का  क्शण रोकने के लिए किया जाता है, क्योकि कुण्ड्लिनि के सोते रह्ने पर भी अम्रुत क्शरित होता रहता ) कबीर कहते है कि इससे  क्षरणशील मधुर एव तरल अमत मिश्रि की तरह सध्न होकर स्थिर हो जाता है और योगी को अमरत्व प्रदान कर देता है।
     अलकार--(I) रूपक-- प्रीति की भीख। सबद नाद । मन ध्यान । काया कासी-    -ग्यान मेखली।
            (II) पुनरूति प्रकाश --लेते।    
            (III) पदमत्रि नाद वाद । ग्यान ध्यान । वास परकास। भाई खाई ।  बन्द कन्द।
     विशेष--(I) इस पद मे काया योग क वर्नन है। इसके लिये देखे टिप्पणी पद स० ४ ।
      (II) त्रिकुटी दिखे टिप्पणी पद स
      (III) सहज- दिखे टिप्पणी पद स
      (IV) अनहनाद--दिखे टिप्पणी पद स
      (VI) शरीर मे ही समस्त तीथो को मान कर कबीर ने वाहाचार क विरोद किया है।साथ हि उन पर तात्रिक सादना का स्प्ष्ट प्रभाव दिकायी देता है। 
      (VII) मन मुद्रा जाके गुरु को ध्यान-- इस कथन के द्वारा ताश्रिक साधना के वाह्वाचार के प्रति विरोध पकट हे। तातपया यह हे की कबीर सव पकार की वह साधना को वयथे  चयन  करता है।
      (VIII) काया-कामी यहाे भी काजीवास को लदय करके कबीरन ने दमभ का