पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५१२

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यनरावली ] [ ८२७

विरोध किया है | अभिप्रेत यह है कि सच्चा योगी अन्तमुखी चित्तवृत्ति बना कर अपनी काया के भीतर (अन्त करण) में स्थित शिव तत्व की उपासना करता है |

                    ( ३७८)
      मेरौ हार हिरांनौं मै लजाऊ,
              सास दुरासनि पीव डराऊं || टेक ||
      हार गुह्यौ मेरौ राम ताग, बिचि भान्यक एक लाग ||
      रतन प्रवालै परम जोति, ता अंतरि अंतरि लागे मोती ||
      पंच सखी मिलिहै सुजांन, चलहु तजई थे त्रिबेणी न्हांन ||
      न्हाइ धोई कै तिलक दीन्ह, नां जानूं हार किनहू लीन्ह ||
      हार हिरांनौ जन बिमल कीन्ह, मेरौ आहि परोसनि हार लीन्ह ||
      तीनि लोक की जानै पीर, सब देव सिरोमनि कहै कबीर ||
      शब्दार्थ-हार=शुद्ध चित्तवृत्ति से तात्पर्य है | पुरासनि=कठोर, क्रुद्ध होने वाली | सास=बोध वृत्ति | ताग= डोरा | मान्यक=माणिक | विमन= दुखी |
      संदर्भ-कबीर की आत्मा सुन्दरी प्रभु के वियोग मे दुःखी होकर कहती है |
      भावार्थ-ईश्वरोन्मुखी वृत्ति रूपी मेरा हार खो गया है | इससे मैं लज्जित हो रही हू | मुझे बोध वृत्ति रूपी कटोर और परमात्मा रूपी पति का डर लग रहा है | वृत्ति वृत्ति रूपी मेरा वह हार हरि-नाम रूपी तागे में पिरोया हुआ था | इसके बीच बीच मे प्रीति और समपर्ण के मणि माणिक लगे हुए थे | उसमें भक्ति की परमज्योति रूपी अनेक मू गे तथा अन्य रत्न लगे हुए थे | उसमें थोङे-थोङे अन्तर पर मुक्ति रूपी मोती लगे हुए थे | मेरी पाचों इन्द्रियों एवं उनकी आसत्त्कि रूपी सखियों ने मुझ से कहा था कि चलो त्रिगुण-रूपी त्रिवेणी में स्नान कर आऍ (इन्द्रियों से प्रेरित मैं त्रिगुणात्मक संसार में लिप्त होने चली गई) | विषय-सुख भोग कर जब मैंने श्र्ंगार का तिलक किया-अर्थात काम भाव को जीवन का सार समझा, तो उस समय मुझे मालूम हुआ कि वोध वृत्ति रूपी मेरा हार किसी ने ले लिया है | हार खो जाने से हम सबका मन दुःखी हो गया | माया (वासना) रूपी मेरी पङोसन ने ही मेरा हार ले लिया है | कबीर कहते हैं कि सब देवताओं के शिरोमणि भगवान राम तीनो लोकों के प्राणियों की व्यथा को समझते हैं | (वह शुद्ध अन्त करण का वोध-वृत्ति रूपी हार मुझे वापिस दिला मेरी व्यथा दूर करेंगे ऐसा मेरा विश्वास है |)
    अलंकार-(I)सागरूपक-सम्पूर्ण पद मे | हार और वोध-वृत्ति के रुपक का आद्यन्त निर्वाह है |
           (II) पुनरूत्त्कि प्रकाश-विचि विचि, अतरि अतरि |
           (III) अनुप्रास-७ वी पंक्ति, हार हिरानो, हार |