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८२८] [कबीर

   विशेष--(I) साधना के प्रतीको का प्रयोग हे ।
   (II)जीव की शोभा ‌‌‌‌ईश्वर-प्रेम है । इससे उसे हार कहत‌‍‍े हैं ।

इस वर्णन पध्दति पर सूफियो की पीर और उनके दाम्पत्य प्रेम का गहरा प्रभाव है | यथा सको एक तेइ खेल न जाना | मै अचेत मनि-हार गंवाना |कवल डार गहि में वेकरारा | कासो पुकारौ आपन हार |

  घर पंठत पूंछब यह हारू | कौन उतर पाइब प्ंसारू 
न जानौ कौन पौन लेइ आवा | पुन्य दसा मैं,पाय ग्ंवावा|
ततखन हार बेगि उतिराना | पावा सखिन्ह चंद विहंसाना |
(मानसरोदक खण्ड,मलिक मुहम्मद जायसी यहँ चद शब्द के लिए प्रयुक्त हे,जो बुध्दि       या शुध्द चित्तवृत्ति की प्रतीक है| 
 (III) कबीर ने यहाँ यह वर्णन सामान्य भारतीय बघू की मनः स्थिनति की हष्टि से किया है|एक प्रकार कबीर द्वारा इस मनोदशा का वर्णन बहुत ही माभिक एव स्वाभाविक वन गया है|
 (IV)हार गुहयो राम ताग--राम-प्रेम ही इस हार क मुलाधार है|इसि से उसको 'तागा' कह्ते हें| यथा--जुगति बेध पुनि पोहिय राम चरित बर तागा|पाहिर सज्जन विमल उर जिनके अति अनुरागा|
                                                (गोस्वामी तुलसीदास)
 (V)लागं मोति--मुक्ति को मुक्ता कहते हें| इसमे श्लेष के चमत्कार के साथ साधर्म्य की भावना भी मुखरित रहती है--मुक्ति-मुक्ता को मोल-मालहो कहा है,जब मोहन लला पे मन-मानिक ही वार चुकीं|
                                              (जगन्नाथदास रत्नाकर)
   (VI)सवाद शली का सुन्दर प्रयोग है|
   (VII)पच सखी--लीन्ह|विपयासक्ति के वशीभूत होकर ही जीव इस श्रिगुणात्मक जगत मे लिप्त होता है| यही उसका माया के वशीभूत होकर शुध्द चित-वृत्ति का खो जाना हे| यह माया ही पडोसिन हे|पडौमिन के लिए देखे टिप्पणी पद संख्या ३७|
                         (३७६)
  नहीं छाडी वाया रांम नांम,
            मोहि ओर पढन सू फौन कांम||टेक||