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५३०] [कबीर

     विशेष-(I)सडा मुरका का पाठान्तर सटै भ्ररकै भी है। तब अर्थ् होगा -छडी मारकर गुरु ने जाकर शिकायत की।
     (II)इस पद मे कबीर की भक्ति-पद्धति सर्वथा सगुण भक्तो जैसी दिखाई देति है। इस आख्यान का आश्रय लेने से वह परम्परावादी अर्थ मे गृहीत अवतार-वाद मे विश्वास रखने वाले प्रतीत होते हैं। परन्तु उन्के मूल जीवन-दर्शन को ध्यान रखते हुए उन्को सगुणोपासक मानना भूल होगी। बात यह है कि कबीर जनता को भगवान के प्रति आश्वस्त करना चाह्ते थे। इन पदो मे उसी की व्यजना समझना चाहिए। 
   पारमार्थिक द्रष्टि से निर्गुण भक्त कबीर और तुल्सि प्रभृति भक्तो मे कोइ अन्तर नही ठहरता है। दोनो के ही राम परमार्थत निर्गुण निराकार राम हैं। विवेचन के स्तर पर दोनो ही पद्धतियाँ भिन्न है। परन्तु व्यवहार के क्षेत्र मे वे फिर एक दूसरे के बहुत कुछ निकट आ जाते हैं। और ऐसा क्यो न होता? गोस्वामी तुल्सिदास ने स्पष्ट लिख है कि-
     अन्तरजामिहुँ ते बड वाहर जामी हैं प्रभु नाम लिये तें।
     पैजि परै प्रहलादहुँ  को प्रकटे प्रभु पाहन तें न हिए तें।
                  (३५०)
     हरि कौ नांउ तत त्रिलोक सार,
          लै लीन भये जे उतरे पार॥ टेक॥
     इक जंगम इक जटाघार, इक अंगि बिभूति करै अपार॥
     इक मुनियर इक मनहू लीन, ऐसै होत जग जात खीन॥
     इक आराध सकति सीव, इक पडदा दे दे बधै जीव॥
     इक कुलदेव्यां कौ जपहि जाप, त्रिभवनपति भूले त्रिबिध ताप॥
     अनहि छाडि इक पीवहि दूध, हरि न मिलै बिन हिरदै सूध॥
     कहै कबीर ऐसै विचार राम बिना को उतरे पार॥
     शब्दार्थ- लै लीन= लवलीन। सकति= शक्ति। सीव= शिव। पडदा= परदा।
     संदर्भ- कबीरदास राम भक्ति की महिमा का वर्णन करते हैं।
     भावार्थ- भगवान का नाम ही तीनो लोको मे एक मात्र सारतत्व है। जो

इससे लवलीन हुए वे भवसागर के पार उतर गये। साघुओ ने अनेक सम्प्रदाय् बना रखे हैं। एक जगम है, दूसरा जटाघारी है। एक अपने शरीर मे अनाप-शनाप राख मल लेता है, तो एक मौन व्रत धारण करके अपने आप मे ही लीन बना रह्ता है। इस प्रकार होते-होते संसार मे भगवद-निष्ठा क्षीण होती जा रही है। एक शक्ति की उपामना करता है, तो कोइ शिव को पूजता है, तो दूसरा परदे की ओट मे जीव की हत्या करता है। एक कुल देवियो का जप करता है और इस प्रकार लोग