पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५१७

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इससे अनत कला वाले भगवान से तुम्हारा साक्षात्कार होगा ओर तुम्हारे मन को आत्मानन्द की प्राप्ति होगी|

  अलंकर  (i)रुपकतिश्योक्ति-सुवा,मीना। बसत।
         (ii)पुनरुक्ति प्राकाश-बार बार।
         (iii)रूपक-अंजन मजन विकार; भौबन्ध |
         (iv)पदमंत्री-अजन भंजन|
         (vi)सभग पद यमक-जुग जुगत ।
   विशेष-(i) वाह्माचार का विरोघ है |

(ii) सत्सग एवं गुरू की महिमा का प्रतिपादन है| (iii) वसंत- वसन्तोत्सव वसत पचमी से होली की पुर्णिमा तक(४० दिन तक) मनाया जाता है|

                (३८२)
  बनमाली जांने बन की आदि,
         रांम नांम बिन जनम बादि॥ टेक||
  फूल जु फूले रुति बसंत, जामे मोहि रहे सब जीव जंत ||
  फूलनि मैं जैसे रहै तबास, यू घटि गोविंद है निवास ||
  कहै कबीर मनि भया अनद, जगजीवन मिलिवौं परमानंद ||
  शब्दथ--आदि=आरम्भ,उत्पत्ति | बादि=व्यर्थ | रुचि बसत | आसक्ति का ससार | फूल=भोग-विलास |
  सन्दभ-कबीर दास प्रभु-साक्षात्कार के आनन्द का वर्णन करते हैं|
  भापार्थ--वनमाला घारण करते वाले प्रभु रूपी वनमाली इस जगत रूपी वन के आदि(उत्पत्ति) को जानते हैं| राम-नाम के बिना यह जीवन व्यर्थ हैं|ऋतुवसत रूपी आसक्ति के ससार मे विभिन्न आकर्पक भोगो के रूप मे जो फूल फूले हुए हैं, उनके द्वारा जगत के ममस्त जीव जन्तु मोहित हो रहे हैं--अपने कर्तव्य को भुले हुए हैं | जिस प्रकार फूल मे सुगध रहती है, उसी प्रकार सबके अन्तंकरणो मे भगवान व्याप्त हो रहे हैं| कबीर दास कहते है कि जब परमानद रूप जगजीवन (ईश्वर) का साक्षात्कार हुआ, लो मन आनदित हो गया |
   अलंकार   (i)रूपाकातिशयोक्त्ति-स्म्पूर्ण पद| वन,फूल,वसंत |
           (ii)साग रूपक-जीवन और वन का रूपक ।
           (iii)परिकराकुर-वनमलि ।
           (iv) उदाहरण-फूलनी निवास|                   
           (vi)  पुनरुक्ति प्रकाश-घटि घटि ।
           (vii) रूपक-जगजीवन परमान्ंद ।
   विऱोप-(i) वन कीॱआदि-संसार का प्रारम्भ कब और कैसे हुआ, यह अगण्य प्रश्न है| इसी से उसको भगवान ही जानते हैं|