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(४१)

कल्पना शक्ति बिखरी पड़ी हुई है। उसे 'कोटी होइ कै' खाना और खोजना पड़ेगा। कबीर की कल्पना का उत्कर्षं उन पंक्तियों में विशेष रुचिकर है जहाँ वे संसार का वर्णन करते हैं।

सुगवा पिंजरवा छोरि कर भागा॥
इस पिंजरे में दस दरवाजा, दसौ दरवाजौ किनरवा लागा।
अखियन सेती नीर बहन लाग्यौ
अब कस नाही तुं बोलत अभागा।
कहत कबीर सुना भाई साधो, उड़िगे हंस टूटि गया तागा।
तथा
कौन ठगवा नगरिया लूटल हो[१]
सतगुरु है रंगरेज चुनरि मोरी रंग डारी[२]
हसा करो नाम नौकरी[३]
आई गवनवां की सारी,[४]
उमिरि अबहि मोरी बोरी[४]

आदि कल्पना के पारखी द्वार विशेष रूप से पठनीय है। इन कबीर की कल्पना शक्ति की विविधिता और स्पष्टता दिखाई पड़ती है। कबीर ने कल्पना के चुनाव में औचित्य पर भी ध्यान दिया है यह उनको मनोवैज्ञानिकता का परिचायक है। किसी वस्तु या व्यापार का वर्णन या कल्पना करते समय प्रत्यक्ष एवं कल्पित के साथ उसके साम्य तथा सम्बन्ध को ध्यान में रखना नितान्त आवश्यक है। प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत के साम्य पर ही कल्पना का औचित्य निर्भर माना जाता है। कबीर तथा अन्य सन्तो ने इस बात पर विशेष ध्यान दिया है। वे न हवाई किलों के निर्माण मे विश्वास करते थे, न फालतू बातों का प्रतिपादन ही करते थे। निम्नलिखित उद्धरणों से इस कथन की पुष्टि होगी:—

(१)

बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥


  1. सतवानी संग्रह भाग २ पृ॰ ४।
  2. वही पृ॰ २।
  3. वही पृ॰ ३।
  4. ४.० ४.१ वही,