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८३६] [कबीर

रुपी चोर रहता है। उसने मेरे सम्पूर्ण चैतन्य का हरण कर लिया है।मांगने पर वह मेरे चैतन्य रूप को देता नही है और अनुनय विनय भी नही मानता है। इतना ही नही, वह् कामदेव मेरे ह्रुदय मे तान-तान कर बाण माराता है। हे कामदेव ,मै अपनी रक्षा के लिए किसको पुकारू? तुम्हारे डर के मारे बडे-बडे भाग खडे हुए है।ब्रह्मा,विष्णु और चन्द्रदेव तुमने किस-किसको कलकित नही किया है?जप,तप,समय,पवित्रता ध्यान और ज्ञान सभी व्यक्ति इसके समक्ष पराजित हो गये है।कबीर कहते है कि इसके प्रभाव से केवल वे ही दो-तीन व्यक्ति बच पाए है जिन पर भगवान ने अनुग्रह किया है।

 अलन्कार-१)गूढोक्ति-प्रथम पक्ति,किहि गुहराऊ।
        २)रूपक-मदन चोर,काम वान।
        ३)विशेशोक्ति की व्यजना-मागो देह   मान।
        ४)पुनरुक्ति प्रकाश-किहि किहि।
        ५)वऱोक्ति-किहि'कलक।
        ६)सहोक्ति-सब सहित ग्यान
  विशेश-१)काम के सर्वव्यापी एवं सर्वग्रासी प्रभाव की ओर सकेत है।
   २)जा परि -कीन्ह। पुष्टि मार्गीय भ्क्त की भ्रांति कबीरदास उद्धार के लिए प्रभु-कृपा पर अवलम्वित् दिखाई देते है।
   ३)कामदेव के बान---५ है-मोहन,उन्मादन,संतपन,शोषन,और निश्चेष्टीकरण।
                (३८६)

ऐसौ देखि च्रारित मन मोह्रौ मोर,

     ताथै निस वासुरि गुन रमौ तोर॥टेक॥

इक पढ्हिं पाठ इक भ्रमैउदास ,इक नगन निरंतर रहै निवास॥ इक जोग जुगति तन हूहि खीन,ऐसै रांम नांम सगि रहै न लीन॥ इक तत मतं ओषध वानं,इक सकल सिध राखै अपांन॥ इक तीर्थ् व्रत करि काया जीति,ऐसै रांम नांम सूं करै न प्रीति॥ इक घोम घोटि तन हूंहि स्याँम, यूं मुकति नहीं बिन रामं नामं॥ सत गुर तत कह्यौ विचार,मूल गह्यौ अनभै बिसतार॥ जुरा मरण थै भये घीर ,रांम कृपा भई कहि कबीर॥

    शब्दार्थ-खनी=क्षोण। कलापी=कलाप=करघनी,लक्षण से कोपीन,अत: कलापी का अर्थ् कोपीनघारी हुआ। अयान-अयान वायु,भीतर को खिची जाने वली सास-तात्पर्य 'प्राणयाम' से है।घोम=घुँआ।मूल=परम तत्व। जुरा=जरा,व्रुद्धा स्द्धा।घीर=निश्चल,अविचल।अनमै=निर्भय अवस्था।