पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५२२

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संदर्भ- कबीरदास बाह्याचार के कारण उत्पन्न स मार की दुर्दशा का वर्णन करते हैं |

  भावार्थ - हे प्रभु स सार के लोगो के आचरण (स सार की दुर्दशा) देखकर ही मेरा मन आपकी ओर आकृष्ट हुआ हैं | इससे मैं दिन रात आपके गुणो मे रमा हुआ हूं ( आपकी भक्ति मे तल्लीन हो गया हूं)|कोई वेद पाठ मे भूला हुआ है, कोई स सार के प्रति उदासीन होकर घूमता है,कोई निरन्तर नग्न बना हुआ रहता है, और कोई योग की युक्तियो से (हठयोग की साधना द्वरा) अपने शरीर को ही सुखाता है |ऐसे व्यक्ति राम-नाम से लवलीन नहीं रहते हैं | कोई भिखारी बन जाता है और कोई दानी बना हुआ दिखाई देता है | कुछ ऐसे साधु है जो कोपीन तो धारण किए हुए है, परन्तु (वामाचार का अवलम्बन करते हुए) शराब पीते हैं | कोई तत्र-मत्र एव जडी-बूटियो की साधना करता है और कोई प्रणायाम की साधना करता है और कोई प्राणायाम की साधना करके पूर्ण सिध्द होने क दम्भ करता है| कोई तीर्थ-व्रत करके अपने शरीर पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करता है|  बाह्याचार मे विश्वास करने वाले ये व्यक्ति राम - नाम से प्रेम नहीं करता | कोई घुए मे घुट-घुट कर अपना शरीर काला कर देता है| परन्तु राम नाम के बिना इस प्रकार की साधनाए करने से मुक्ति की प्राप्ति न्हीं होती है| सतगुरु ने विचार करके तत्व की बात बताई है| ह्र्दय मे निभय अवस्था का विस्तार करने वाले परम तत्व की बात ग्रहण करो | कबीर कहते है कि (गुरु के उपदेशानुसार आच्ररण करके) अब मै वृध्दावस्था और मृत्यु के प्रति निश्चल हो गया हूँ अर्थात् इनके भय से मुक्त हो गया हूँ| अब मेरे ऊपर राम की कृपा हो गई है |
  अलंकार- (१) अनुप्रास - मन मोह्यो मोर | नगिन निरतर निवास |
               (२) विरोधाभास- कलापी सुरापान |
               (३) पदमैश्री - तत मत |
               (४) तद्गुण की व्यजना - धोम घोटि तन हूहि स्याम |
   विशेष - १) बाह्याचारो क विरोध है | राम-नाम के महत्व का प्रति-पादन है|
       २) 'वैराग्य' की व्यजना है |
                      (३८७)
     सब मदिमाते कोई न जागा ,
               ताथै सग ही चोर घ्रर सुसन लाग || टेक ||
     पंडित माते पढि पुरानं , जोगी माते धरि धियांन् ||
     सन्यासी माते अहमेव , तपा जु माते तप क भव ||
     जागे सुक उधव अकूर , हणवत जागे मै लगूर ||
     सफर जागे चरन सेव , कलि जागे नामा जैदेव ||