पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५२३

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ए अभिमान सब मन के कांम, ए अभिमांन नहीं रहों ठाम ॥

   आतमां राम कौमन बिश्रांम, कहि कबीर भजि रांम नांम ॥
   शब्दार्थ-मद=उन्माद, गर्व । माते=मस्त, बेसुघ् । मुसन लाऊ=लूट रहे हैं ।
   सन्दर्भ-कवीरदास स सारी व्यक्तियो की अज्ञान-दशा का वर्णन करते हैं ।
   भावार्थ-समस्त ससार मन्दान्ध (उन्माद एव गर्य मे अन्धा, होकर अज्ञान की निद्रा मे मदहोश होकर सो रहा है। कोई भी ज्ञान लाभ कर सचेत नहीं होता है । इसी से साथ में लगे हुए कामादिक चोर जीव के शरीर को (जीवन को) लूट रहे हैं। (विवेक को नष्ट तथा विशुद्ध चैतन को तिरोहित कर रहे हैं।) पडित पुराण पढकर मदमस्त है, योगी ध्यान-योग के अहकार मे मदहोश हैं। सन्यासी 'अहमेव' की भावना के अहकार मे तथा  तपस्वी तप के भ्रम मे अपने आपको भूले हुए हैं । शुकदेव, उद्धव, अफूर, और जामवत सहित हनुमान ईश्वर-प्रेम मे अनुरक्त होकर ही इस अज्ञान-निद्रा से जागे थे। शकर को भी भगवान के चरणो की सेवा से ही वीध हुआ था । कलियुग मे नामदेव और जयदेव को भी (इसी प्रकार) ज्ञान हुआ । (ज्ञान तप आदि के) उपयुक्त समस्त अभिमान केवल मन मे उत्पन्न होते हैं। इन अभिमानी के कारण साधक का मन सदैव चचल बना रहता है। इसी से कबीर कहते हैं कि आत्मारामो के मन के विश्राम राम-नाम का भजन करना चाहिए-अर्थात् मन का वास्तविक विश्राम आत्माराम है । वहाँ पर मन अपनी सम्पूर्ण चंचलता सहित शुद्ध चैतन्य मे विलीन हो जाता है। यह ज्ञान और प्रम द्वारा ही सम्भव है । इसी से कवीर कहते हैं कि, हे जीव, राम-नाम का स्मरण करो । 
   अलंकार-रूपकातिशयोक्ति - चोर, घर 
   विशेष-(१) दम्भ उत्पन्न करने वाले वाह्याचारो का विरोध है। साथ ही सच्ची भक्ति-भावना का प्रतिपादन है । 
    (२) पुराण एव इतिहास प्रसिद्ध भक्तो की चर्चा द्वारा तीन बातें प्रकट होती हैं-(क) कबीर का विरोध केवल दम्भ से घा। जहाँ भी सचाई थी, वहाँ कवीर का मन रम जाता था । (ख) भारत मे पौराणिक सस्कृति का व्यापक प्रभाव था । जनता के मन को प्रभावित व रने के लिए पौराणिक पात्रो का उल्लेख आवश्यक था । तथा (ग) कबीर के ऊपर हिन्दू सस्कारो का गहरा प्रभाव था । 
                             ( ३८८ ) 

चलि चलि रे भवरा कवल पास,

        भवरी वोलै अति उदास ॥ टेक ॥

ते अनेक पुहप कौ लियौ भोग, सुख न भयौ तब बढयौ है रोग ॥ हौं ज फहत तीसू वार वार, मै सब बन सोध्यी डार डार ॥ दिनां चारि के सुरंग फून, तिनहि देखि कहु रह्यो है भूल ॥ या वनासपती में लागौगी आगि, तव तू जेहाँ केहां भागि ॥