पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५२५

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पर्यवसान हो जाता है । यही बुध्दिरूपी भ्रमरी का मन रूपी भ्रमर को अपने सिर पर चढाना है ।

    सद्प्रवृत्तियो एवं द्रुष्प्रवृत्तियो का यह मानसिक शाश्वत है । इसी प्रकार दैवासुर-सग्राम, पाण्ड्व-कोरवो का महाभारत,राम-रावण का युध आदी कहा गया है। वुधी मनस विश्व-चेतना की वाहिका है। वही विश्व-चेतना स्वरूप भगवद चरणो के प्रति उन्मुख व्रुति  है।
    विवेक एव भक्ति के प्रति वासनात्मक मन का स्मर्पन जीव का स्वभाव एव जीवन की सार्थकता है। इसी का वर्नन इस पद मे किया गया है।
   (११)विविध रस-लोलुप होने के कारण मन भ्रमर है। भ्रमर को तृप्ति केवल कमल प्रदान कर पाता है और वह उसी के कोश मे आबध्द् हो जाता है। इसी से भगवान के चरणो को कमल कहते है। चरण कमलो का स्मरण करते-करते वासनात्मक वुध्दि  मे पर्यावसान ग्यानी भक्तो का प्रतिवाघ रहा है । भ्रमर गीत की परम्परा का साहित्य इसका ज्वलत उदाहरण है।
                        (३८६)
    आवध रांम सबै करम करिहू,
         सहज समाधि न जमथे डरिहूं॥ टेक ॥
    कुभरा हूँ करि बासन घरिहू,धोबी हू मल घोऊ ।
    चमरा हूँ करि रगोै अधौरी , जाति पान्ति कुल खोऊ॥
    तेली हूँ तन कोल्हू करिहौ ।पाप पुॱनि दोऊ पीरौं॥
    पंच बैल जब सूध चलाऊं,राम जेवरिया जोरू॥
    ग्यत्री हूँ करि खड़ग सँभालूॱ,जोग जुगति दोउ साधूॱ।
    नऊवा हूँ करि कूॱ मू ड़ू,बाढ़ी हुँ कर्म बाढूँ॥
    अघघू हूँ करि यहु तन धूतौ बधिक हूँ मन मारू ।
    वनिजारा हू तन कू बनिजूॱ,जूवारी हूँ जम हारूॱ॥
    तन फरि नवका मन करि खेवट,रसना करऊ बाडारूॱ।
    कहि कवीर भौसागर तरिहूॱ,आप तिरू बप तारूॱ॥
   श्ब्दार्थ्-आवघ =अवधि पति।कुभरा =कुम्हार ।घरिहूँ=बना दूँगा।

अघोरी=घिनौनी वस्तुएँ।पीरौं=पेलूंगा ।अवधू=अवघूत,जोगी।करऊँ बाडारू=डा० माताप्रमाद गुप्त ने इस्का अर्थ् करउवा=डालू करके 'पतवार डालूँगा' लिखा है। डा० भगवत्स्वरुप मिश्र ने इनका अर्थ् "करऊँ-वाडारूँ" करके रस्सा वना टूँगा लिखा है।केवट के सदभं मे 'पतवार' अधिक सगत है ।इसी से हमने इस्का अर्थ् 'पतवार' ही किया है ।वप=वाप,पूवंज।

   सन्दर्भ --कबीरदाग कमं की कुशलता द्वारा उधार की कामना करते है।
   भावर्थ-हे अवचपति राम,मैं सब कमं कहूँगा और सहज समाधि को