पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५२६

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प्राप्त करु गा और मैं इस प्रकार कर्मो को ज्ञान की साधना मे परिणत करता हुआ म्रुत्यु का आलिंगन करने को सदैव तैयार रहूँगा।

    कुम्हार होकर मैं सुन्दर वर्तन वना दूँ गा। धोबी होकर मैं कपङो का मैल अच्छी तरह धो दूँगा । चमार होकर मैं चमङा जैसी घिनोनी वस्तु को अच्छी तरह रखूगा और इस प्रकार जाति-पाति और कुल के कारण उत्पन्न हीनत्व भावना को समाप्त कर दूँ गा । तैली होने पर मैं अपने शरीर को कोलू बनाकर उसमे पाप पुण्यों को पेरु गा तथा भक्ति रुपी तैल निकालूँगा। अपनी पाँचो इन्द्रियो को कोल्हू का बैल बना दूँगा और राम-प्रेम की रसी से नाथ कर उसे(पचइन्द्रिय रुपी बैल)को भक्ति के सीधे मार्ग पर चलाऊँगा। क्षत्रिय होने पर मै विवेक कि तलवार चला दूँगा तथा योग एव ज्ञान दोनो को सिध्द करुँगा। (विवेक पूर्वक दुष्टों को दण्ड दूँगा तथा दण्ड निर्धारित करते समय तटस्य की भाँति व्यवहार करुँगा। यही ज्ञान एव योग की साधना है।) नाई होने पर अपने मन कि समस्त वासनाओ को मूड दूँगा। बढई होकर मै कर्मों के बधन को काटूँगा। अवधूत होने पर मैं इस शरीर के मल को धोकर साफ करुँगा और बाधिक के रूप मे इस वासनामय मन को ही मार डालूँ गा। व्यापारी बनने पर मैं परम तत्त्व का व्यापर करूँगा। जुवारी होने पर मै मृत्यु भय को ही दाव पर लगाकर हार जाऊँगा ( मै अपने शरीर की नौका और मन का केवट एव जिव्हा की पतवार बनाकर भव-सागर के पार जाऊँगा। कवीर कहते हैं कि इस प्रकार मै स्वय्ं तिरुँगा और अपने पूर्वजों (अन्य व्यक्तियों) का भी उध्दार कर दूँगा। 
  अलकार-(१) रूपक-तन कोल्हू,राम जेवरिया। पच्ं बैल तन करि"
             डारू।
        (११) सौ सागर।
        (१११) अनुप्रास -तरिहै, तिरूँ।तारुँ।
      विशेष-(१) कर्म कि महिमा का प्रतिपादन है।निष्ठापूर्वक कार्य ही मोक्ष का साधन बनता है। "यो की कमसु कौशलम (गीता)
           (११)कवीर की यह मान्यता प्रकट है कि सभी जातियो के व्यक्त्ति अपने व्याव-सायिक कर्मो को आध्यात्मक रूप प्रदान करके परम पद के अधिकारी वन सकते है। यही सम्न्वय एव तत्त्व दृष्टि है। वह स्व्य्ं जुलाहे थे और अपने कर्म को निष्ठापूर्वक करते हुए परमपद के अधिकारि बने थे।
       (१११) इस पद मे सभी जातियो के कर्मो का माधना-परक अर्थ किया गया है। व्यक्ति  चाहे जिस सामाजिक स्थिति मे हो उसे इश्वर-भक्ति का पूर्ण अधिकार एव अवसर प्राप्त है। यह मान्यता भारतीय दृष्टिकोण के अनुरूप है। तुलना करे--
   (क)श्रेयान्स्वधर्मो विगुण परधर्मात्स्व्नुष्ठितात् । 
       स्वधर्मे निधन श्रेय परधर्मो भयावह् ।
                                     श्री मदभगवद्गीता,३/३५