क्बीर
वत्रोक्ति - कौन गुणा| उल्लेख - निज अमृत सार| पुनरुक्ति प्रकाश - सुमिर सुमिर | सभंग पद थमक - दासनि दास| विशेष - १)अनन्य भक्ति का प्रतिपादन है| २)मृग,मीन,भृ गी परम्परागत प्रेम-प्रतीक है| राग सारंग यहु ठग ठगत सक ल जग डोलै, गवन करै तब मुषह न बोलै||टेक|| तु मेरौ पुरिषा हौ तेरी नारी,तुम्ह चलते पाथर थै भारी|| बालपनक़ां के मींत ह्मारे,हमहि लाडि कत चले हो निनारे|| हम सु प्रीति न करि री बौरी,तुम्ह से केते लागे ढौरी|| हम काहू संगि गये न आये,तुम्ह से गढ हम बहुत बसाये|| माटी की देही पवन सरीरा,ता ठग सू जन डरै कबीरा||
शब्दार्थ ठग्=जीव| नारी = देह से तात्पर्य है| पाथर=पत्थर| थै भारी=से भी अधिक कठोर | निनारे=न्यारे,अलग| ढौरी=लगन |
गढ =अड्डु| सन्दर्भ-कबीर जीवन की निस्सारता का निरूपण करते है| भावार्थ-यह जीव रूपी ठग समस्त ससार को ठगता हुआ घूमता है| यह शरीर का आश्रय लेकर ससार के सुखो को भोगता है और फिर शरीर को छोड कर चला जाता है|(जाते समय यह शरीर के प्रति निमोंही हो जाता है)और शरीर से मुह से भी नही बोलता है। इस समय यह काया उससे कहती है कि तुम मेरे पुरुष(पति) हो और मैं तुम्हारी आश्रिता पत्नी हूँ|तुम इस पत्थर से भी अधिक कठोर बन कर चले जा रहे हो? तुम तो हमारे बालकपन के मित्र हो|तुम हमसे अलग होकर कहॉँं जा रहे हो? जीव उत्तर देता है कि,"हे पगली ह्मसे प्रीति मत करे| तुम्हारी जैसी न मालूम कितनी नारियो से ह्मने लगन लगाइ है| हम किसी भी शरीर के साथ न तो आए है और न किसी शरीर के साथ जाते ही है|हमने तुम्हारे जैसे काया रूपी अनेक अड्डे वसाए है(ह्म तो अड्डे पर टिकते है और चले जाते है|जिस ठग रूपी जीव की काया स्थूल मिट्टी की भॉंति नश्वर है तथा जिसका प्रेरक तत्व हवा की तरह अस्थिर है,उस्से भगवान का भक्त कवीर बहुत डरता है,अथार्त उसके प्रति कवीर बिल्कुल आसक्त नही है|
अलंकार : १) सभग पद यमक - ठग ठगत | २)व्यति रेक - पाथर थे भारी| ३)रूपक - माटी सरीरा|