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ग्रन्थावली] [८४७]

              (iv) रूपकातिशयोक्ति---ठगI

विशेष---(1)देह की नश्वरता, जीव का अनेक योनियों में भटकना तथा शरीर की आसक्ति का विपरीत लक्षणा द्वारा अच्छा वर्णन किया गया हैI

(11)जीव न मालूम कब शरीर को छोड़ दे इससे भगवन का भजन ही सार हैI यह व्यजना हैI

                       (३६५)

घनि सो घरी महूरत्य दिनां,

           जब ग्रिह आये हरि के जनांII टेक II

दरसन देखत यहु फल भया, नैनां पटल दूरि है गयाII सब्द, सुनत संसा सब छूटा, श्रवन कपाट बजर था तूटाII परसत घाट फेरि करि घड़या, काया कर्म सकल झडि पड़याII कहै कबीर संत भल भाया, सकल सिरोमनि घट मैं पायाII

शब्दार्थ----मुहुर्त=समय(काल), पटल =पर्दाI कपाट=किवाडI वजर= वज्रI घाट =शरीरI फेरि करि= दुबाराI घडया=निर्माण कर दियाI सकल सिरोमनि=भगवानI काया-कर्म =इन्द्रयासक्तिI

  सदर्भ-कबीरदास सत्सग की महिमा का वर्णन करते हैI
  भावार्थ- वह घडी, वह समय तथा वह दिन  घन्य था जब घर पर भगवान 

के भक्त पधारेI उनके दर्शन करते ही यह प्राप्त हो गया कि आखो के सामने से अज्ञान का पर्दा हट गयाI उनके उपदेशामृत को सुनते ही समस्त सशय दूर हो गये तथा कानो पर लगे हुए वज्र के किवाड भी टूट गयेI उनके स्पर्श मात्र से यह काया दूसरी ही हो गई अथवा उनके सत्सग द्वारा मुझे एक नवीन जीवन ही प्राप्त हो गया तथा विषय-भोगो के प्रति समस्त आसक्ति समाप्त हो गईI कबीर कहते है कि मुझको संत बहुत ही अच्छे लगे, क्योंकि उनकी संगति के प्रभाव से मुझको अपने हृदय मे सम्पूर्ण विश्व के शिरोमणि भगवान का साक्षात्कार हो गयाI

         अलंकार---(1)चपलातिशयोक्ति की व्यजना---दरसन   ''पड़याI
                 (11)रूपकातिश्योक्ति--पटलI
         विशेष----समभाव के लिये देखें-
                      
                  जा दिन सत पाहुने आवतI
               तीरथ कोटि स्नान करे फल, जैसो दरसन पावतI
               X                 X                X
               बंधन-करम कठिन जे पहले, सोऊ कारि कहावतI
               सगति रहै साधु की अनुदिन, भव-दुख दूरि नसावतI
               सूरदास, या जनम-मरन तें, तुरत परम-गति पावतI
                                                 (सूरदास)