पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५३४

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ग्रन्थांवली } {६४६ ली है|'वरियाँ'का अर्थ 'वेला'करने पर इस पंक्ति का अर्थ इस प्रकार किया जाता है,'अवसर रहते ही मैने खेत को सम्हाल लिया है|' परन्तु हमको जो अर्थ सर्वाधिक उपयुक्त प्रतीत हुआ हमने ऊपर वही लिख दिया है|

     तुलसी की भांति कबीर भी 'राम नाम' की महिमा गाते हुए थकते नही हैं|
                   
                          (३६७)
             हरि गुन सुमरि रे नर प्रांणी |
                 जतन करत पतन ह्रै जैहै,भावै जांभण जांणीं ||टेका|
             छीलर नीर रहै धूं कैसै, को सुपिनै सच पावै ||
             सूकित पांन परत लरवर थै,उलटि न तरबरि आवै ||
             जल थल जीव डहके इन माया, कोई जन उबर न पावै|
             रांभ अधार कहते हैं जुगि जुगि, दाप कबींरा गावै ||
   शब्दार्थ--- भावै=मन को अच्छा लगे| जाणम जाणी=जानने योग्य बात को जान ले|

छिलर=छिछला पोखर| पान=पत्ता| डहके= धोखा दिया|उबर पावै= उध्दार हो पाया|

         सन्दर्भ--- कबीर माया के सर्वव्यापी प्रभाव का वर्णन करते हैं|
         भावार्थ--- रे प्राणी,तुम भगवान के गुणो का स्मरण करो|इस प्रकार के प्रयत्न (वाह्राचार) करते हुए तेरा शरीर नष्ट हो जाएगा|तुम चाहो,तो इस जानने योग्य तथ्य को जान लो|छिछले पोखर मे पानी कब तक रह सकता है? वह तो सूखेगा ही|(अल्पशक्ति वाला शरीर तो नष्ट होगा ही)|स्वप्न मे प्राप्त होने वाले सुख से कौन सुखी हो सकता है? जो पत्ता पेड से गिर गया है,वह उलट कर वापिस उस व्रुक्ष मे नही लगता है|जल-थल के सम्पूर्ण जीय इस माया के धोखे मे पडे हुए है|भगवान का कोई भक्त ही इससे छुटकारा पा सकता है|कबीरदास कहते हैं कि एक मात्र राम-नाम ही युग युगातर से इस माया से बचने का आधार रह्ता आया है|
       अलंकार-(१) विशेषयोत्कि--जतन..जैहै|
             (२)अनुप्रास--- जतन जैहै जाणम जाणी|
             (३)वक्त्रोत्कि--- छीलर पावै|
             (४)निदर्शना--- छीलर आवै|
             (५)पुनरूत्कि प्रकाश--- जुगि जुगि|
       विशेष- (१)वाह्रा साधनो का विरोध है|
             (२)मन की पवित्रता का प्रतिपादन है|
             (३)राम-नाम की महिमा अपार है|
             (४)समभाव देखें--
                मनिखा जनम दुर्लभ है देह न वारम्वार|
                तर-वर से फल भाडि पडया,बहुरि न लागै डार|