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ग्रन्थावली] [८५१
विषयी - प्राणियो ने विषयासनि रूपी काच को टुकडे को पकड रखा है । (ये कितने मूर्ख है ।) अलंकार - (i) पुनरुतत्किप्रकाश - जपि जपि । घन घन । (ii) अनुप्रास - जपि जपि जीयरा । मन मूवा मरि । (iii) पदमैत्री - हित चित । (iv) यमक - घन घन । (vi)उपमा - ज्यू बन फूली मालती । (vii)दृष्टान्त - धुंवा केरा वारो रे । (viii)गूढोत्कि - काहे गरव कराये रे । (ix)रूपक - विषय-विकार । (x) विशेषोत्कि - ना हरि भजि उतरया पारो रे । (xi) रूपकातिशयोत्कि - कचन, काच । विशेष - (i) संसार की निस्सारता एव क्षण भगुरता का काव्यात्मक वर्णन है । (ii) निर्वेद सचारी की व्यजना है । (iii) ज्यू वन जाये रे - समभाव की अभिव्यत्कि देखें= सो अनन्य गति जाके मति न टरई हनुमत । मै सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवत । (गोस्वामी तुलसीदास) (iv) धुवा केर धोलहर बारो रे । - तुलना कीजिए - जग-नभ- वाटिका रही है फलि फूलि रे । धुवा कैसओ घोरहर देखि तू न भूलि रे । (विनय पत्रिका, तुलसी) [३६६] 'न कछु रे न कछु रांम बिनां । सरीर घरें की रहै परमगति, साघ संगति रहनां ॥टेक॥ मंदिर रचत मास दस लागे, बिनसत एक छिनां । भ्कू सुख के कारनि प्रांर्नी, परपच करत घनां ॥ तात मात सुत लोग कुटंव मै, फूल्यो फिरत मनां । कहै कबीर रांम भजि बोरे, छांडि सकल भ्रमनां ॥ शब्दार्थ - घना = बहुत । प्रपच = फैलाव । सन्दर्भ- कबीर संसार की असारता का वर्णन करते हैं । भावार्थ - भगवान की भत्कि के बिना कुछ भी नही है, कुछ भी नही है (जीवन निस्सार है ) शरीर धारण करने की सार्थकता साघुओ की सगति से रहना है । इस शरीर रूपी मन्दिर को बनने मे दस गहीने लगते है, परन्तु यह एक क्षण