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[ कबीर
 

शब्दार्थ ---- पाति पच = पचं ज्ञानेन्द्रियाँ रूपी पत्ती ।पहुप= मनरुपी फूल ।

सवद = अनहदनाद् ।

सन्दर्भ- इस पद मे कबीरदास एक ऐसी आरती का वर्णन करते है जिसके प्रकाश मे परमात्मा के दर्शन हो जाते है ।

भावार्थ- कबीरदास केह्ते है कि साधक को अपने इस देव की आरती इस प्रकार मेरे द्वारा निर्दिष्ट ढग से उतारनी चाहिए जो तीनो लोको को तारने वाली है । इस आरती को प्राण वहाँ उतारता है जहाँ तेज-पुजं हरि का निवास है ।पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को पाँच वत्तियो के रूप से लेकर एक मात्र निरजन देव की पूजा करनी चाहिये । इसके बाद नैवेध के स्थान पर अपना तन , मन और शरीर समर्पित कर दे और फिर सहस्त्रार मे प्रकट होने वाली ज्योति मे अपनी आत्मा को पूरी तरह लीन कर देना चाहिये। इसके बाद ज्ञान का दीपक लेकर अनहदनाद रूपी घटे का शब्द करते हुए उस अनन्त परमपुरुष का पूजन करना चाहिए । वास्तव में उसी परमपुरुश के प्रकाश से यह समस्त संसार प्रकाशित हो रहा है । कबीरदास कहते है कि उस ज्योति के सम्मुख साधक को कहना चाहिये कि हे प्रभु मैं आपका सेवक हूँ । ( कबीरदास जी अपने आपको इसी परम ज्योति स्वरूप पुरुष का दास कहते है । अनहदनाद - देखें टिप्पणी पद स० १६४ ।

अलंकार - (i) अनुप्रास - पात्री पत्र पहुप पूजा ।

(ii) रूपक पाती पच पहुप । दीपक ज्ञान, सवद घुनि घटा ।

(iii) पदमैत्री - तन मन समरपन (iv) सागरूपक- सम्पूर्ण पद मे । आरती के वाहग्य उपकरणों के

(iv) सागरूपक- सम्पूर्ण पद मे । आरती के वाहग्य उपकरणों के

आध्यात्मिक अर्थों की कल्पना से सम्पूर्ण आरती ही आध्यत्मिक साधना एवं भक्ति में परिणत हो गयी है ।

विशेष- प्राय समस्त सम्प्रदायों मे पूजा के अन्त में भगवान की आरती उतारी जाती है । कबीरदास ने कभी पढावली के अन्त में अपने इष्ट देव की आरती उतारी है । यह बात दूसरी है की इस आरती का स्वरूप लौकिक की अपेक्षा आध्यात्मिक अधिक है । उनके मतानुसार प्रभु के प्रति सवंस्व समपर्ण ही वसतुत: उन्की सच्ची आरती उतारना है ।