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ग्रंथावली]
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अधिकरी है। सच्चा योगी वही है जो समार के प्राति आपतिक को भस्म कर लेता है तथा चिन्तनपुर्वक सहज लत्व को ग्रहण करता है। वह अपने अन्त करण मे ही अभय तत्व से परिच्य प्राप्त करके बात करता है। उसी का मनन ओर निदिघ्यासन करता है। ऐसे योगी का निशचय कभी डीगता नही है। हे जनी,तुम अहिसा द्वरा जीव की रक्शा करने का दभ्य भरते हो,पर यह तो विचार करो कि तुम किस जीव का उद्धार कर रहे हो? (जीव का स्वरूप पहिचान कर)यह जानने का प्रयत्न करो कि चोरासी लाख योनियो का स्वैममी कह रहता है ?इस रहस्य को समझने पर ही तुमको मुक्ति की प्रप्ति हो स्केगि।भक्त इस सन्सार से तिरने (पार होने) का सकल्प करता है, पर वह पहले यह तो समभ ले कि तात्विक रूप से तिरना है क्या? प्रेम का स्वरूप समभ्त कर जो राम का स्म्रण करता है,वही भ्क्त भ्गावन का दास कहला सकथ है। पण्डित चारो वेदो का गुणगान करत है ओर विश्व के आदी ओर अन्त स्वरूप ब्रम्हा का पुत्र कहलता है। पर हे पडित उत्पत्ति(आदि) एव प्रलय(अत) के वस्तविक स्वरूप का चिन्तन करके उसका वर्णन करो। इस पर विचार करके सम्पूर्ण भ्रम ओर सशय को समाप्त करो। नीचे ओर ऊची सभी स्थितियो के सन्यसी वस्ताव स्वरूप मे उस एक अविनशी तत्व मे ही अनुरक्त रहते है। जो सन्यसि अजर अमर तत्व को ह्द्नापूर्वक (पूर्ण निश) के साथ )ग्रहण कर लेता है,वह समघि को प्राप्त करता है, ओर परमतत्व मे हो जता है। जिसने पृथ्वी को गति प्रदान को, ब्रम्हाण्ड की सृश्टी की ओर पृथ्वी को नवखण्डो मे विभाजित कर दिया,उस अविगत पुरुस्ग की माया किसी के द्वर भी नही जानी गई है। भ्क्त कबीर उस अगम्य तत्व मे अपनी लौ लगाए हुए है। अलन्कर-(i) रूपक तेल "जार" (ii)भ्रन्तिमान-मुलना जानी। (iii) प्द्मन्त्री-अघ उर्घ (iv) अनुप्रास-जगम जोग जहू वा, जीव। (v) वकोत्त कोन उधार (v।) सम्ब्ङ्हतिशयोति-क्षविगीत

विशेश- घमिक कृथियो तथा कययोग की अपेक्षा ग्यन अव्म भ प्रतिपादन है।

[२] सतपदी रमैणी

(२)

कहन सुनन को जिहि जग कीन्हा ,जग भुलान सो किनहु न चीन्हा॥ सत रज तम थे कीन्ही माया,आपण आप छिपाया॥ अनन्द स्वरूपा, गुण प्ल्ल्व बिस्तर अनूपा॥ साखा तत थे कुसुम गियना, फल सो आछा राम का नामा॥