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[कबीर
 

सदा अचेत चेत जीव पाखी,हरि तरवर करि बास । भू जगि जिनि भूलिस जियरे,कहन सुनन की आस॥

शबदार्थ-कूसम=फ़ूळ ।

संदर्भ-कबीऱ जाग्त के मिथ्यात्व का प्रतिपाद्न करते है

भावार्थ-कहने सुनने के लिये ही (केवल लौकिक द्रिष से ही जिस जग की रचना हुई है,उसके वास्तविक स्वरूप को किसि ने नही जाना है और सन्सार के सम्पूर्न जीव उसमे भ्रमित है । सतोगुण,रजोगुण और तमोगुण के द्वरा इस माया- मोह कि सृष्टि हुई है।इस चैतन्य तत्व ने अपने आपको अपनी ही माया के द्वारा आवृत कर लिय है।वह तत्व स्वयं तो आनन्द स्वरूप है।ये तीनो गुण इस जगत्त रुपी वॄक्ष के पत्त्ते है।उसकी शाखाओ मे ग्यन के फूल लगे है और रामनाम् उस का फल है।रे निरतर अग्यान मे अचेत रह्ने वाले जीव रूपी पक्षी जागो और हरि रुपी इस वृक्ष की शरण मे चले जाओ।रे जीव,इस मिथ्या ससार के मोह मे अपने आपको मत भूलो।इस जगत की समस्त आशाएँँ केवल कह्ने सुनने भर के लिए है-उनक परमार्थ कोई अस्तित्व नही है।

अलंकार-(i)सवधातिशयोक्ति-किन्हूँ न चीन्हा।

(ii)साग रूपक-गुन पल्ल्व जामा । (iii)सभग पद यमक अचेत चेत । (iv)रूपक-जीव पखी,हरि तरवर ।

विशेश-(i)ग्यान और भक्ति का समविन्त सदेश है।

(ii)ससार को 'कहन सुनन'कि आस कह्कर उसके क्षणभगुर स्वरूप का कथन किया गया है ।

(iii)कहन सुनन मे लाक्षण का चमत्कार है ।

(iv)गुण पल्लव नामा -तुलना क्ऱे -

अव्य्क्त मूलमनादी तरु त्व्च चारि निगमागम भने । पट कंध साखा पंच वीस अनेक पर्न सुमन घने । फल जुगल विघि कटु मधुर वेली अकेजी जेहि आश्रित रहे । पल्लव फुलत नवल नित संसार विटप नमोमहे ।

(गोस्वमी तुलसिदास,रामचरितमानस)
 

(३)

सूक विरख यह जगत उपाया,समझि न परै विपम तेरी माया ॥ साखा तीनि पत्र जुग चारी फल दोइ पाप पुंनि अधिकरी । स्वाद अनेक कथया नही जांही,किया सदित्र सो इन मे नाहीं ॥ तोतो आहि निनार निरंजना,आदि अनादि न आना । कहन सुनन को कीन्ह जग आप आप भुलाना ॥