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ग्रन्थावली ]
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शब्दार्थ-सूक= सूखा हुआ,निष्तत्व एव नीरस| निनार = भित्र।

सन्दर्भ - पूर्व पद के समान| विषम= दुर्वोघ ।

भावार्य- हे भगवान, आपने निष्तत्व एव नीरस जगतरूप वृक्ष को उत्पन्न किया है| हे प्रभु आपकी यह माया बङी ही दुर्वोघ है, समभ मे नही आती है| त्रिगुणरूपी इसकी तीन शाखाये है चार युग ही इसके पत्ते है और पाप-पुण्य ही इसके दो फल है| इन फलो के विषय भोगरूप अनेक स्वाद है जिनका वर्णन नही किया जा सकता है| जिसने इन सबको बनाया है,वह इनमे लिप्त नही है-वह इनसे पृथक एव निरजन माया-रहित तत्व है। आदि आैर अनादि नाम से जिसे अभिहित किया जाता है, वह यही निरजन तत्व है,कोई दूसरा नही| उसने केवल कहने सुनने के लिए जगत की सृष्टी की है-अर्थात् जगत की सृष्टी करना यह सब कोई पारमार्थिक सत्य नही है, केवल कथन मात्र है|सृष्टी कुछ हुई ही नही, वह तो विपत्त गात्र है| यहा स्वयं अपनी माया मे ही भूले हुए है| हम सब स्वयं अपने याम्हा रूप से लिप्त होकर अपने वास्तविक आम्यतर क्वरूप को भूले हुए है| यही जगत है।

अलंकार- (१) विरोधाभास-मूक उपाया।

(२)साग रूपक-सम्पूर्ण पद।

विशेष- (१)देखे टीप्पणीया पूर्व रमैणी।

(२) इसमे अद्वैतवाद एव मायावाद के अनुसार जगत का निरूपण है।

(३) यहाँ जगत की सृष्टी की ज्ञान परख एव भक्ति परख दोनो प्रकार की व्याख्याये है। जीव दोनो की समनिवत दृष्टी से संसार को देखे-यही उपदेश हैं भक्त के लिए जगत आनन्द रूप तथा ज्ञानी के लिए विवंत रूप है।

(४)'

जिनि नटवै नटसरी साजी, जी खेले सो दीस बाज। भो बपरा थे जेगति ढाठी, सिव बिरार्च नारद नही दीठी। आदि अति जो लीन भये है,सहजे जांनि सतोखि रहे है। सहजे रांम नांम ल्यौ लाई, रांम नांम कहि भगति दिढाई ।। रांम नांम जाका मन मांनां,तिन तौ निज सरूप पहिचांनां । निज सरूप निरजनां, निराकार अपरपार अपार । रांम नांम ल्यौ लाइस जियरे, जिनि भूले बिस्तार ।। शब्दार्थ- नरसरी= नाट्यशाला सृष्टी नटवै= नट, सृजक । दीस= ह्र्षिट्गत होता है। बाजी= किसी किसी को| दिढाई= दृढ करना । वयरा= बेचारा ।

सन्दर्भ- कबीर जगत की अनिवर्चनीयता का वर्णन करते है।

भावार्थ-जिस सजंन कर्त्ता ने इस जगतरूपी नाट्यशाला की रचना की है और इसमे वह जो लीला करता है वह किसी किसी को हृष्टीगत होती है।