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ग्रंथावली]
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रूपी विष ही निस्सृत होता रहता है, और जो कुछ उनके मुख में जाता है, वह भी विष ही बन जाता है । (उनकी समस्त आकाक्षाएँ वासना से विषैली होती हैं। और उनके सम्पूर्ण भोग एव कार्य वासना के विष में परिणत होते हैं ।) यह सारा जगत वासना के विष से ग्रस्त होकर उन्मत्त हो रहा है और इन प्राणियो को अपना होश नही है । मनुष्य भ्रम से अपने स्वरूप को भूला हुआ आवागमन के चक्र मे पड़ा हुआ है। यह अज्ञानग्रस्त प्राणी जान बूझ कर मोह निद्रा मे फँस गया है और चेतता नहीं है, और इसी से वह कर्म की जठराग्नि मे जलता है और कर्म के फदो मे फँसा हुआ है। कर्म के बन्धनो मे बधा हुआ यह जीव रात-दिन (निरन्तर) आवागमन के चक्कर मे घूमता है। वह अपनी अभीप्सित मानव योनि प्राप्त करके भी भगवान को भूल जाता है और अन्त में पछताता है ।

अलंकार-(1) रूपक--जग धध, करम जठर, करम के फदा ।

(ii) विरोधाभास--अध" • उपाया ।

(iii) सवधातिशयोक्ति-किनहूँ न जाना ।

(iv) रूपकातिशयोक्ति-भुजगा ।।

(v) श्लेष-विप ।।

(vi) अनुप्रास-भूत, भ्रमि, भूले ।

विशेष-(1) माया-मोह ग्रस्त जीव का सजीव चित्रण हैं ।

(ii) विषयी जीव के लिए भुजग शब्द का प्रयोग बडा ही अर्थ गभित है। यह ‘विषयी' का परम्परागत गृहीत प्रतीक है ।।

(iii) साँप को दूध पिलाने से विष में वृद्धि होती है । विषयी की विषयभोग के द्वारा विषयाग्नि में वृद्धि होती है।

(६)

तौ करि त्राहि चेति जा अंधा, तार परकीरति भजि चरन गोव्यंवा ।। उदर कूप तजौ ग्रभ बासा, रे जीव राम नाम अभ्यासा । जगि जीवन जैसे लहरि तरगा, खिन सुख कू' भूलसि बहु संगा ।। भगति को हीन जीवन कछु नाही, उतपति परलै बहुरि समाहीं । भगति हीन अस जीवन, जन्म मरन बहु काल ।

आश्रम अनेक करसि रे जियरा, राम बिना कोई न करे प्रतिपाल ।।

शब्दार्थ-त्राहिदैन्यपूर्वक रक्षा की प्रार्थना। परकीरति=अन्य व्यक्तियो की खुशामद । कूप== कुआँ । अन्धाधुन्धा, अस्पष्ट दृष्टि वाला।

सन्दर्भ-कवीरदासजी कहते हैं कि राम-भक्ति ही उद्धार का एकमात्र उपाय है ।

भावर्थ -है अस्पष्ट दृष्टि वाले जीव, चेतना और दीनतापूर्वक भगवान से रक्षा की प्रार्थना कर। अन्य व्यक्तियो की खुशामद तथा अन्य देवताओ की आराधना छोड़कर भगवान गोविद के चरणो का ध्यान करो । उदरूपी कुएँ” (गर्भ) मे तुमको