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की है । संत साहित्य मे दाम्पत्य एव्ं वात्सल्य प्रतीको का प्रचुर प्रयोग हुआ है। कभी-कभी प्रतीकात्मक पदो का अर्थ स्पष्ट करने के लिए सन्तो ने पंडित, पन्ड, मुल्ले और मौलवियो तक को चुनौती दे डाली है । कबीर का तो विश्वास है कि जो उनके प्रतीको को नही समझता है उससे वार्तालाप करने से कोई लाभ ही नही है :-

जो कोई समझे सैन में, तासे कहिये बैन ।
सैन बैन समझै नहीं, तासे कहुनहि कहन ॥

सन्तबानी सग्रह भाग १, पृष्ट ४५१३०)

कबीर की कविता मे प्रतीको का बाहुल्य है। कबीर के दास्ग्र भाव के प्रतीको मे दास तथा ब्रह्मा की एकात्मकता का भाव बड़ा आकर्षक बन पड़ा है:-

मै गुलाम मोहि बेचि गुंसाई। तन मन धन मेरा राम ज के ताई॥
आनि कबीरा घाट उतारा। सोई ग्राहक सोई बेंचन हारा॥
वेवें राम तो राखै कौन। राखै राम तो वेचै हारा॥
कहै कबीर मैं तन मन पारया। साहिब अपना छिन न बिसराया॥

इसी प्रकार कबीर के साहित्य मे वात्सल्य प्रतीको का बाहुल्य है :-

हरि जननी मैं बालक तेरा, काहे न अवगुन बकसहु मेरा।
सुत अपराध करै दिन केते, जननी के चित रहैन तेते॥
कर गहि केस करै जो घाता, तऊ न तो उतारै माता।
कहै कबीर एक बुद्धि बिचारी, बालक दुखी दुखी महतारी

कबीर ने दाम्पत्य प्रतीको की भी रचना की है। इस कोटि के प्रतीक बढे रसमतय और मधुर है। उदाहरणार्थ-

दुलहिन गावहु मंगलचार, हम धरि आयो हो राजा राम भरतार ।
तन रति कर मैं मन रति करिहू पंच तत वराता।
राम देव मोहि व्याहन आये मैं जोवन मदमाती॥
सरीर सरोवर वेदी करिहू, ब्रम्हा वेद उचार।
रामदेव संग भावँरि लेहू, धनि धनि भाग हमारा॥
सुर तेतिस कोटिक आये मुनिवर सहज अठासी।
कहै कबीर हम व्याहि चलै है, पुरुष एक अविनासी ॥