पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८७४]
[कबीर
 

शशक्,ख्ररगोंश|दावानल =बन मे लगने वालो अग्नि।पाश =फंदा।काट,कीडा।

सदर्भ- कबीर विषयासक्त जीव की दुर्दशा का वर्णन क्ररते हे।

भावार्थ- जो इस स्व्प्त्बत संसार को सत्य समभकते है,उन्हे इससे उत्प्न होने वाले दु खो का ध्यान नही रहता है।रे विवेकहीन जीव,तुम ज् जागते नही हो।अज्ञन की निंदा मे सो रहे हो।पर मै तो विषय भोग रुपी विषधर सर्प से भयभीत होकर जाग गाया हूं।इस संसार मे मोह रुपी शिकरी वासनारुपी विष मे बुभक्त हुए भि वाण मार रहा है।मृगया का पूरा रुपक बाँधते हुए कबीरदास कहते हे कि काल रुपी शिकारी शाम-सवेरे(ह्रर समय)तैयार खडा है। ससार के समस्त प्राणी ऊसके मृगया योग्य खरगोश है। हाँ विपय विकार रुपी दावानल सुलग रहा है।माया-मोह ने इन विकारी को एक्त्र करके प्रज्वलित करने मे सहायत हो रही है। इस ससार रुपी जगल मे यम के शिकार की चर्चा सर्वत्र व्याप्त है।इन जीव-रुपी पशु-पक्षियो को घेरने के लिए त्रयताप रुपी यम के दुत चारो ओर फिर रहे|जीव रुपी पक्षि अव बचकर कहाँ जाएँगे|यम के दूत दिन रात जीव के वालो को पकड लेगे|यम का फदा अत्य्न्त कठोर है|उसके समझ किसी का वश नही चलता है|हरेक प्राणी को यम के द्व्र पर पहुँचकर यातना भोगनी पडती है|इन दु खो की बात सुनकर भी जीव राम का गुणगान नही करता है ओर मृग्तृष्णा रुप मिथ्या चित्रयो की ओर भागता फिरता है|मृत्यु की ओर किसी का धयान नही रहता है|वह सामारिक विषयो को जो मूलत,दुख रुप माने रहता है|कबीर चेतावनी देते हुए कहते है कि रे अभागे,तुम सम्पूर्ण सुखो के मुल भगवान को तो पहुचानते नही हो|उनको पहुचाने बिना तुमको दु:ख घेरे ही रहेगे|जिस प्रकार नीम के कीडे को नीम को कहुला रस ही प्रिय लगता है,उसी प्रकार विषयी जन विपरुप विपयो को अमूत रुप कहते है|मोह ग्रस्त ससारी जीवोँ के लिए विष और अमूत को समान समभ्क्त लिया है|जिन विवेकी जन ने भगवान के आनन्द स्वरुप (प्रम) को विपयो से पृथक करके समभ्क्त लिया हे,वे ही वस्तुत,सुख के भागी बनते है|विपयो का राज्य (मह्त्व)आयु के माथ दिनोदिन क्षीण होता जाता है,परन्तु फिर भी जीव ईश्वर-प्रेम के अमृत को छोडकर स्वभाववश विपयो के विप का सेवन करता है|जो जीय जान-बूभ्क्तकर अथवा घोले से विपयो के विप को खाते है,वे भवसागर की लहरी मे पढे हुए पुकारते रहते है|विपयो के सेवन मे क्या गुण है(यह मेरी समभ्क्त मे तो आता नही है|)जो ज्ञान धुन्य है,वे ही इन त्रपयो मे लिप्त होते हे। कुम्ह्ला कुम्ह्ला कर जीव धीरे विपयो की आशा(आसक्ति)मे भुलनता रहना हैं। वागना रुपी काली यध्यपि बहुत ही स्वरुप है,तथापि वह जीव के आनन्द स्वरुप रुपी दुध को फाड देती है अथात उसके आनन्द को मिटा।