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कबीर की रचनाओं में सांकेतिक प्रतीक,[१] पारिभाषिक प्रतीक, संख्यामूलक प्रतीक,[२] रूपात्मक प्रतीक[३] तथा प्रतीतात्मक उल्टवासियों के सुन्दर उदाहरण मिलते हैं‌। प्रतीकात्मक उल्टवासियों की रचना करने में कबीर बड़े कुशल थे। प्रतीकात्मक उल्टवासियों के भी दो भेद है—प्रथम वे जो प्रतीक प्रधान है। द्वितीय रूपक प्रधान, रूपक प्रधान में प्रतीक गौण रहता है। उदाहरणार्थं रूपक प्रधान उल्टवासी देखे।

हरि के पारे बड़े पकाये, जनि जारे तिनि खाये।
ज्ञान अचेत फिरै नर लोई, ताते जनमि-जनमि डहकाये॥
धौल मंदलिया बैलरवाबी, कउवा ताल बजावै।
पहिर चोलना गदहा नाचै, भैसा निरति करावै॥
स्यंध बैठा पान कतरै, मूस गिलौरा लावै।
उदरी बपुरी मंगल गावै, कछु एक आनन्द सुनावै॥
कहै कबीर सुनहु रे सन्तो, गनरी परवत खावा।
चकवा बेसि अंगारे निगलै, संमद अकासे धावा॥

प्रतीक प्रधान उल्टवासी

कैसे नगर करौ कुद्वारी, चंचल पुरिप विचक्कन नारी।
बैल बियाह गाय भई बाँझ, बछरा दूहै तीन्यू सांझ॥
मकड़ी घर भावी छटिहारी, मास पसारि चोल्ह रखवारी।
मूसा केवट नाम बिलइया, मोड़क सोवै साप पहरिया।
नित उठि ख्याल सिंध सू जूझे, कहै कबीर कोई बिरला बूझे॥

कबीर की प्रतीक योजना के संबन्ध में उपर्युक्त उद्धगरण से अनुमान लगाया जा सकता है। वास्तव में कबीर साहित्य सुन्दर प्रतीक योजना से भरा पड़ा है। पग-पग पर कबीर ने सुन्दर प्रतीकों के माध्यम से अकथनीय या कठिनाई से वर्णित होने वाले अनुभव को व्यक्त कर दिया है। प्रतीक सच्चे रहस्यवादी की बड़ी भारी शक्ति होती है। इसी प्रतीक के माध्यम से वह हृदय के भार को कम करता है। कबीर इसके अपवाद नहीं थे। कबीर के प्रतीक (उल्टवासियों के अतिरिक्त) कही दुर्बोधं और कठिन नहीं है। उनके प्रतीक भाव को ग्रहण करने में सहायक सहयोग देने वाले हैं। अंपढ़ जनता के लिये कबीर के ये प्रतीक और भी


  1. कबीर ग्रंथावली पृ॰ ८४ पद १८‌।
  2. वही परया कौ अंग पद १०
  3. संत कबीर पृ॰ २२४, राग भैरव पद १७।