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[कबीर
 

रे रे मन मोहि ब्यौरि कहि,हो तत पूछौं तोहि।

स्ंसै सूल सब भई,समझई कहि मोहि।

शब्दार्थ-बुधिमान।सयान=चतुर। वौराई=पगल,म्रर्क। ब्योरि=व्योरा।करु=कडुआ।

स्ंदभ्ं-कबीरदास आत्मीलोचन व्दारा विवेकपुर्ण पथ निधऱित करते हैं ।

भावार्थ -हे मन तुम वुध्दिमान हो, तथा ज्ञान के भण्डार हो । तुम स्वय अपने आप ही विचार करो।जीबो मे कौन चातुर है और कौन पागल अथवा मूखं दुख के हेतु हैं और कौन पगल अथवा मुर्ख है - वह जो विषयो मे अनुरत है अथ्वा वह जो ईश्वराभिमुख है। कौन से कर्म दुख के हेतु हैं और किन कर्मों से दुख निर्वति होती है?किस मे हर्ष है,किसमे विपाद है? किसे अहित समभे ओर किस हित माने?कोन वस्तु सार है ओर कौन निस्सार है? कौन प्रेम शून्य है और कौन प्रेम क्र्ने वाला है? क्या सत्य है और क्या मिथ्था है।जीवन की कौन सी अनुभूति कडुवी है और कौन सि अनुभूति कडुवी है और कौन सि अनुभूथी मधुग है? कौन वस्नुत दु खो से जल रहा है और कौन सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है? कौन से कर्म मुति के हेतु वनते है और किन कर्मो के करने से गले मे फदा पड्ता है?जीवन के मूल तत्व एव प्रयोजन के इन प्रश्नो पर तुम स्वय करके विचार करके मुभ बताओ। रे मन ,मैं तुम्से तत्व की बात पूछ रहा हूं। स्ंशय मेरे लिए शून्य हो गये हैं। तुम मुभ को व्यौरेबार बतओ।

अल्ंकार-(१)वीप्सा- रे रे।

(२)मभंग पद यमक-अनहित हित।

(१५)

सुंनि ह्सा मै कहै बिचारी,त्रजुग जोनि सबै अधियिरी॥ मनिषा जन्म उतिम जौ पावा,जांनू राम तौ सयांन कहावा॥ नहीं चेतं तौ जनम गमावा,परयौ विहांन जन फिरि पिछतावा॥ सुख करि मुल भगति जौ जांने,और सवै दुख या दिन आने॥ अमत केवल राम पियारा,और सुवै विष के भडारा॥ हरिख आहि जो रमिये राम, और सवै विसमा के कामां॥ सार आहि सगति निरवांनां,और सवै असार करि जांनां॥ धनहित आहि सफल संसारा,हित करि जांनिये राम पियारा॥ साच सोई जे थिरह रहाई,उपजै विनसै भूठ जाई॥ मींठा सो जो सहजै पाया,अति कलेस थे करु कहावा॥ नां जरिये नां कीजं में मेरा,तहाँ अनव जहां राम निहारा॥ मुकति सोज आपा पर जाने,सो पद कहां राम निहोरा॥ प्रांननाय जग जोवनां,दुरलभ राम पियारा। सुत सरीर धन प्रगह कबीर,जोयेरे तवंर पंख बसियार॥