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ग्रंथावली]
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शब्दार्थ-ह्ंसा=शुद्ध चैतन्य| त्रिजुग=तिर्यक योनि,पशु पक्षि आदि प्राणी|प्रग्रह-परिग्रह,धन का सचय|निहोरा-शरणगति।

सन्दर्भ-कबीरदास के गुरु(वृध्दि मनस)रमैणी सख्या १४ मे पूछे गये प्रश्नो का उत्तर् देते हए सार वस्तूओ को बताते हैं।

भावार्थ-हे जीव,आत्म स्वरूप मे स्थित होकर सुनो,मै विचार करके तुम्हारे प्रश्नो का उत्तर देता हु|पशु-पक्षि आदि प्राणियो की समस्त योनिया है-अज्ञान की हेतु है|यदि किसि को मिल सके,तो पाने योग्य केवल मनुष्य जन्म ही उत्तम है|अगर मै परम तत्व राम को को जान सकू तो बुध्दिमान समझ जाऊगा|जीव यदि चेतकर भ्रम एव अज्ञान को नही त्यागता है,तो वह अपना जन्म व्यर्थ ही गवा देता है|ज्ञानोदय रूपी प्रभात काल को यदि वह छोद देता हे,तो फिर अन्त मे उसको पछ्ताना पडता है|जो भक्ति को समस्त सुखो का मूल समझता हे वह भक्ति से रहित अन्य समस्त वस्तुओ को दुख के रूप मे मानत है|राम का प्रिय होना ही केवल अमृत रूप है,तथा विषय-वासना विष के भण्डार है|राम मै रमना ही केवल हर्ष का हेतु है,शेष तो विषाद हेतुक कर्य है|निवृत्ति परायण की सगति ही सार वस्तु है|शेष सव की सगति व्यर्थ हे|समस्त सगार अमगलकारी हे,केवल प्रिय राम है मगलकरी है|सत्य वही हे जो स्थिर रह्ता है|जो उत्पन होता है और नष्ट होता है,वह तो मिथ्या और झूट है| मघुर वही है जो सहज भाव से प्राप्त होता है और जिसकी प्राप्ति मे कलश भोगने पडते है,वही कडुआ है|जिसमे मै और मेरी कि भावना नही है,उसको जलना नही पडता है|जहा राम की शरणगति है,वही आनन्द है|मुक्ति वह अवस्था है जहा भ्रम दूर हो जाते है|प्राणनाथ राम ही ससार के जीवनाधार है तथा राम का प्रेम अत्यन्त दुर्लभ वस्तु है|पुत्र,शरीर,धन,परिग्रह तथा परिजनो के लिए जीना तो केवल पक्षा का वक्ष पर थोडी देर का बसेरा मात्र है|अभिप्रय यह है कि राम भक्ति जीवन को स्थिरता प्रदान करती है|शेष जीवन एव सम्बन्ध क्षणिक है एव महान उदेश्य से हीन है।

अलकार-सभग पद यमक-मार असार,अनहित हित

विशेय-(१) सत्यासत्य का सुन्दर निरूपण है|

(२)सो पद भुलानै-कबीर पन्य मे'य्रहृपद' आदि व्यवस्थाओ को ही परम प्राप्तव्य मान लेने को भ्रम कहा गया है|अत इस पद को भी भ्रम में भुलाने वाला कहा गया है|अत इस पक्ति का अयं इस प्रकार भी किया जा सकता है-जो भ्रम मे भुलाने वाला है उसे 'पद' की सज्ञा कसे दी जा सकती हे?

(३)नाजरिय मेरा-अहकार,ममता एव रागध्देष ही वस्तुत:ताप के हेतु हैं।