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[कबीर
 

(।v)मनिषा जनम पाया -- समभाव देखे --"बडे भाग मानुष तन पावा" क्योकि यह 'साधन मोक्ष कर दवरा है ।

तथा - हरि तुम बहुत अनुग्रह किनोः।।

साधन -धाम बिबुध -दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्ही।

(गोस्वामी तुलसीदास )
 

(१६)

रे रे जीय अपना दुख न साभरा,जिहि दुख व्याप्या रुब संसारा ।। माया मोह भूले सब लोई ,क्यचित लाभ मानिक दीयो खाई ।। मैं मेरी करि बहुत बिगूता ,जंनही उदर जनम का सुता ।। बहुतै रूप भेष बहु किनहं,ज़ुरा मरन क्रोध तन खीना।। उपजै बिनसै जोनि फिराई,सुख कर मूल न पावै चाही।। दुख संताप कलेस बहु पावै,सो अनहित ह्वै जाइ बिलाई ।। मोर तोर करि जरे अपारा,मृग़ त्रिष्णा भकुट्ठी सासारा।। माया मोह भुक्त रह्यों लागी,का भयों इहा का ह्वै हैं आगी।। कुछ कुछ चेति देखि जीव अबही,मनीषा जनम ना पावै का कबही ।। सार आहि जे सग पियारा, जब चैते तब ही उजियारा ।। त्रिजुग जोनि जे आहि अचेता,मनीषा जनम भयों चित चेता ।। आतामा मुर्छि जारी जाई,पिछले दुख कहता न सिराई।। सोई त्रास जे जानै हंसा , तौ अजहू न जीव करै सन्तोसा।। भौसाघर अति वार न पारा,ता तिरिबे का करहु बिचारा ।। जा जल की आदि अति नहीं जानिये,तकूँ डर काहे न मानिये।। को बोहिथ को खेवटः आहि,जिहि तरिये सो लीजै चाहे ।। समझि विचारी जीव जब देखा ,याहु ससर सपून करी लेखा।। भई बाूँधि कछु गयन निहारा ,आप आप ही किया बिचारा ।। आपण मैं जै रह्यों समाई,नेड़ै दुरी कथ्यिों नहीं जाई।। ताके चिन्हे परचों पावा,भई समझि तासूं मन लावा।।

भाव भग़ति हित बोहिथा, सतगुरु खेवनवार ।

अलाप उदिक तब जाणिये,जब गोपदखुर विस्तार ।।

शब्दार्थ -गभारा = ध्यान दिया मानिक = माणिक,चैतन्ये स्वरूप रूपी मणि बिगुता =बाबरद किया त्रिजुग =तियंक ,पशु पक्षी आदि की योनि अलप= अल्प,चौथा सा जो दुर्लघ्य न हो ।

संदर्भ -कबीर जीव के अज्ञान का वर्णन करते हुए कहते हैं ।

भावार्थ -आरे जीये,तुमने अपने दुख के कारण पर ध्यान नहीं दिया । ्न्यं इन दुख से नमस्त संसार ग्रसित हैं राव जीव माया मोह में भूले हुए